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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. १५ आदानीयस्वरूपनिरूपणम् ५३७ मनुष्याणामेव भवति । किन्तु 'अमणुस्सेसु' अमनुष्येषु मनुष्यभिन्नेषु पाणिषु 'गो तहा' नो तथा-मनुष्यवदन्ययोनौ कृतकृत्यत्वं न भवति तत्र धर्माराधनावसरस्यैवासद्भावात् , अतो मनुष्य एव सिद्धिगतिभाग भवतीति 'मे' मया 'सूर्य' श्रुतम्-भगन्मुखाद श्रवणगोचरीकृतमतो नान्यथा भवत्यनः संयमपालने स्वया न प्रमदितव्यमिति भावः ।।१६।। मूलम्-अंतं करति दुक्खाणं इहमेगसि आहियं । आघायं पुण एंगेसिं दुल्लभयं सैमुस्सए ॥१७॥ छाया-अन्तं कुर्वन्ति दुःखाना है केषामाख्यातम् । ____ आख्यातं पुनरेकेषां दुर्लभोऽयं समुच्छ्रयः ॥१७॥ हो सकते, क्योंकि उनकी धर्माराधना का अवसर ही नहीं मिलता। इस कारण मनुष्य ही सिद्धि प्राप्त कर सकता है। ऐसा मैंने भगवान के मुखसे सुना है अतः यह कथन अन्यथा नहीं हो सकता। आशय यह है कि इस कारण तुम्हें संयम का पालन करने में प्रमाद नहीं करना चाहिए ॥१६॥ अंतं करंति दुक्खाण' इत्यादि। शब्दार्थ-'एगेसिं-एकेषां किसी अन्य तीर्थिकों का 'आहियंआख्यातम्' कथन है की देव ही अशेष दुःखों का अन्त करते हैं परंतु ऐसा संभवित नहीं है कारणकी 'इह-इह' इस जिन प्रवचन में तीर्थ कर आदिकों का कथन है की मनुष्य ही 'दुक्खाणं-दुःखानाम्' शारी તેમને ધમરાધનાને અવસર જ મલ નથી. તે કારણે મનુષ્ય જ સિદ્ધિ મેળવી શકે છે. આ પ્રમાણે મેં ભગવાન્ના મુખેથી સાંભળ્યું છે, તેથી આ કથન અન્યથા–અસત્ય થઈ શકતું નથી. કહેવાને આશય એ છે કે–આ કારણથી તમારે સંયમનું પાલન કરવામાં પ્રમાદ કરે ન જોઈએ. ૧દા 'अतं करंति दुक्खाणं' त्या शहाथ----‘एगेसिं-एकेषाम्' अर्थ मन्य भतपातुं 'आहिय-आख्यातम्' કહેવું છે કે દેવ જ અશેષ દુઃખને અંત કરે છે. પરંતુ એવું સંભવતું नथी. पर 'इह-इह' 240 न प्रयनमा तय ४२ विगैरेनु रेवु छ. -मनुष्य । 'दुक्खाणं-दुखानाम्' शारी२ि५ भने मानसि माना 'अंतं सू० ६८ For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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