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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२८ सूत्रकृताङ्गयो तथा 'अणाविछे' अनाविलः रागद्वेषादिकालुष्यरहितः अतएव 'अणाउले' अनाकुल:-विषयेषु-अमवर्तनात् स्वस्थचित्तः । तथा-'सया' सदा सर्वकालम् 'दंते' दान्तः इन्द्रिय नोइन्द्रियनिग्रहवान ईदृशः पुरुषः 'अणेलिसं' अनीदृशम्-अनन्य सदशम् 'संधि' सन्धि-कर्मविवरलक्षणं भावसन्धिम् 'पत्ते' प्राप्तो भवतीति ॥१२॥ मूलम्-अणेलिसस्स खेयन्ने णं विरुज्झिज्ज केणइ । मणसा वयसा चेव कायसा चेव चक्खुमं ॥१३॥ छाया-अनीदृशस्य खेदज्ञो न विरुध्येत केनचित् । मनसा वचसा एव कायेन एव चक्षुष्मान् ॥१३॥ पापों को नष्ट कर दे। रागद्वेष के कालुष्य से रहित हो अनाकुल हो, अर्थात् विषयों में प्रवृत्ति न करने के कारण स्वस्थचित्त हो, सदा इन्द्रियों और मन को दमन करे। इस प्रकार का महापुरुष अनुपम भावसमाधि को अर्थात् कर्म विवर रूप स्थिति को प्राप्त करता है ॥१२॥ ____ 'अणेलिसस्स खेयन्ने' इत्यादि । शब्दार्थ-'अणेलिसस्स-अनीहशस्य' अनन्य के समान संयम में 'खेयन्ने-खेदज्ञः' जो निपुण पुरुष 'मणसा-मनसा' अंत:करण से 'वयसा चेव-वचला एव' वचन से 'कायला चेव-कायेनापि' काय से भी 'के गह-केनचित्' कोई भी प्रागी के साथ 'ण विरुज्झिज्ज-न विरु. ध्येत संयम में निपुण मुनि किसी के साथ विरोध न करे ऐसा पुरुष 'चक्खुमं-चक्षुष्मान् ' परमार्थ को जानने वाला है ॥१३॥ વિગેરે પાપનું નિવારણ કરે. રાગદ્વેષના કલુષિતપણુથી રહિત થાય, આકુળ ન થાય, અર્થાત વિષયમાં પ્રવૃત્તિ ન કરવાને કારણે સ્વાસ્થચિત્ત થાય સદા ઈન્દ્રિ અને મનનું દમન કરે. આવા પ્રકારના મહાપુરૂષ અનુપમ ભાવ સમાધિને અર્થાત્ કર્મ વિવર રૂપ સ્થિતિને પ્રાપ્ત કરે છે. સારા शहाथ:--'अणेलिसस्त्र-अनीहशस्य' अनन्यनी स२मो सयममा 'खेयन्ने -खेदज्ञः' निपुण । २ ५३१ 'मणसा-मनसा' 24:४२९४थी. 'वयसा चेववचसा एव' क्यनथी 'कायसा चेव-कायेनापि' याथी ५ 'केणइ-केनचित्' । पY प्राणीनी साथे 'ण विरुज्झिज्ज-न विरुध्येत' विरोध न ३२ मेवी ५३५ 'चक्खुमं-वक्षुष्मान्' ५२मा ने पापाको छे. ॥१३॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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