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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. १५ आदानीयस्वरूपनिरूपणम् ५२१ नाश्रित्याऽनेकधा भियते । नारिकेलनिम्बबीरादौ यथोपवर्णितभेदस्य सर्वाऽनुभवसिद्धत्वात् । तथाचोक्तम् 'देशना लोकनाथानां सत्वाशयवशंवदाः। मिद्यन्ते बहुधा लोके उपायहुभिः पुनः ॥१॥इति॥ यद्यपि भव्ये एव तदनुशासनं फलति न तु तदभव्ये, तथापि तत्र सर्वोपायज्ञस्य भगवतो नो दोषः, किन्तु तत्र तत्र ताशजीवानामेव स दोषो यत्तदन्तःकरणेन सह तथा परिणमति । उक्तंच 'सद्धर्मबीजवपनानघकौशलस्य, यल्लोकबान्धद! तवापि खिलान्यभूवन् । तन्नाद्भुतं खगकुलेष्विह तामसेषु सूर्यांशवो मधुकरी चरणावदाताः ॥१॥इति।। प्रकार का हो जाता है। नारियल नीम और नींबू आदि में उक्त विभि. न्नता सभी को अनुभव में आती है। कहा है 'देशना लोक नाथानाम्' इत्यादि। __ 'लोक के नाथों-तीर्थंकरों की देशना श्रोता जीवों के अभिप्राय के अनुसार इस लोक में अनेक प्रकार की हो जाती है और वह अनेक कारणों से नाना रूपों में परिणत होती है।' यद्यपि भगवान् की धर्मदेशना भव्य जीव में ही फलवान होती है, अभव्य में नहीं, तथापि सभी उपायों के ज्ञाता भगवान का इसमें कोई दोष नहीं है। यह तो उन श्रोताओं का ही दोष है कि उनके अन्तःकरण के संसर्ग से वह उस प्रकार परिणत हो जाती है। कहा भी है-'सद्धर्मधीजवपनानघ कोशलाघ' इत्यादि। નારીયેલ, લીમડે અને લીંબૂ વિગેરેમાં તે ભિન્ન પણ બધાને અનુભવમાં આવે छ, यु ५५ छ -'देशना लोकनाथानाम्' या લેકનાનાથ તીર્થકરેની દેશના શ્રોતાજનેના અભિપ્રાય પ્રમાણે આ લેકમાં અનેક પ્રકારની થઈ જાય છે અને તે અનેક કારથી અનેક રૂપમાં પરિણમી જાય છે. જે કે ભગવાનની ધર્મદેશને ભવ્ય જીવમાં જ ફલવાન હોય છે, અભવ્યમાં નહીં, તે પણ સઘળ ઉપાયના જાણનારા ભગવાનને આમાં કાંઈજ દેષ નથી. આ તે તે શ્રોતાઓને જ દોષ છે કે–તેમના અંતઃકરણના સંસst a मेरीत परिणत थ य छे. यु. पर छे - सद्धर्मबीजपवपना नघकौशलस्य' इत्यादि For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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