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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. म. १५ आदानीयस्वरूपनिरूपणम् ५१५ अन्वयार्थः--मोक्षाभिमुखानामनुशासनं प्रदर्शयति-मोक्षाभिमुखा यदनुशासति तत् (अणुसासणं) अनुशासनं सदुपदेशः, तत् (पाणी) प्राणिषु-जगज्जन्तुषु (पुढो) पृथक् भिन्न भिन्नं वर्तते भिन्न भिन्नतया तत् परिणमते न तु समान. तया, तत्तज्जीवानां तत्तदन्तःकरणस्य भिन्नभिन्नस्वभावत्वात् । तेनानुशास. नेन कधिदेव मोक्षाभिमुखो भवति न तु सर्वे, योऽनुशासकः स कीशो भवे. दित्याह-(वसुमं) वसुमान-वसुन्धनं मुनेधनं तु संयम एव तद्वान् वसुमान-संय. मवान्, तथा (पूयणासए) पूनानास्वादक:-पूना-सत्कारः तस्या अनास्वादका मनोवाक्कायैरनुमोदकः, अतएव (अणासए) अनाशयः पूजायभिमायवर्जिता, अत. एव (जए) यतः-प्रयतः संयमे यत्नवान् , कुतः ? (दंते) दान्त:-इन्द्रियनोइन्द्रियदमकः अतएव (दढे) दृढः-देवादिभिरप्यविचलितस्वभावः, कुत एवम्-(आरयमेहुणे) ___ अन्वयार्थ--मोक्ष के सन्मुख हुए महापुरुषों के अनुशासन के विषय में कहते हैं उन मोक्षाभिमुख पुरुषों का अनुशासन जगत् के जीवों में भिन्न भिन्न रूप में परिणत होता है, समान रूप में नहीं, क्योंकि विभिन्न प्राणियों का अन्तःकरण भिन्न भिन्न स्वभाव वाला होता है। उस अनुशासन से कोई कोई ही मोक्ष की ओर संमुख होता है, सभी नहीं। अनुशासक केसा हो, सो कहते हैं-'वसु' का अर्थ है धन, मुनि का धन संयम ही है। अतएव 'वसुमान्' का अर्थ संयमवान् समझना चाहिए। जो संयमवान् है, आदर सत्कार का अस्वादन या अनुमोदन नहीं करता आदर सत्कार आदि की इच्छा से रहित होता है, संयम में यतनावान् होता है, इन्द्रियों का और मन का दमन करने वाला है, देव आदि भी जिसे चलायमान नहीं कर सकते, અન્વયાર્થી--મક્ષની સન્મુખ ઉપસ્થિત થયેલ મહાપુરૂષના અનુશાસન સંબંધમાં કહે છે. એ મોક્ષાભિમુખ પુરૂષનું અનુશાસન જગતના જીવમાં જુદા જુદા પ્રકારથી પરિણત થાય છે. સરખી રીતે નહીં. કેમકે-જુદા જુદા પ્રાણિના અંત:કરણે જુદા જુદા સ્વભાવવાળા હોય છે. એ અનુશાસનથી કઈ કઈ પુરૂષે જ મોક્ષની તરફ જનાર હોય છે. બધા નહીં. અનુશાસક है। डाय? ते स म । छ है-'वसु' अर्थात धन, भुनिनु धन सयम र हाय छे. तेथी । 'वसुमान् न। अथ सयभवान से प्रभारी सभाव। જોઈએ. જેઓ સંયમવાનું છે, આદર સત્કારનું આસ્વાદન અથવા અનમેદન કરતા નથી. આદર સત્કાર વિગેરેની ઈચ્છા રહિત હોય છે. સંયમમાં યતનાવન હેય છે. ઇન્દ્રિયનું અને મનનું દમન કરવાવાળા છે, દેવ વિગેરે પણ For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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