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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५१६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृता सूर्य अन्वयार्थः -- जीवितेच्छां परित्यज्य ते किं कुर्वन्तीत्याह - ते असंयमजीवनेच्छारहिता महापुरुषाः 'जीवियं' जीवितम् असंयमजीवनं 'पिओ किच्चा' पृष्ठतः कृत्वा अनादृत्य जीवन निरपेक्षो भूत्वेत्यर्थः 'कर्ण' कर्मणां ज्ञानावरणीयाचष्ट - विधानां चतुणांघातिकर्मणां वा (अंतं) अन्तं नाशं 'पावंति प्राप्नुवन्ति सकलकर्मक्षपणेन मोक्षं प्राप्नुवन्तीत्यर्थः । (जे) ये सकलकर्मक्षपणासमर्थाः भवेयुस्ते 'जीवियं पिट्ठओ किच्चा' इत्यादि । शब्दार्थ - - 'जीवियं जीवितम्' असंयम जीवन को 'पिओ किच्चा - पृष्ठतः कृत्वा' अनादर करके 'कम्मु-कर्मणां ज्ञानावरणीयादि आठ प्रकार के घातिया कर्म के 'अंतं- अन्तम्' अंतको 'पावंति प्राप्नुवन्ति' प्राप्त करते हैं 'जे ये' जो पुरुष सकलकर्म के क्षपण में असमर्थ होते हैं वे पुरुष 'कम्मुना-कर्मणा' तप संयम आदि सदनुष्ठान रूप क्रिया से 'संमुहीभूया - संमुखीभूताः' मोक्ष के सन्मुख होकर 'मग्गं मार्गम्' जिनोक्त - सम्यक दर्शन ज्ञान चारित्ररूप मोक्षमार्ग को 'अणुसासई - अनुशासति' भव्यों को उपदेश करते हैं अर्थात् भव्यों को मोक्षमार्ग उपदेशद्वारा दिखाते हैं ॥१०॥ अन्वयार्थ -- जीवन के प्रति निस्पृह होकर वे क्या करते हैं सो कहते हैं असंयमजीवन की इच्छा से रहित महापुरुष असंयमी जीवन को त्याग कर अर्थात् उससे निरपेक्ष होकर ज्ञानावरणीय आदि आठों कर्मों का या चार घातिया कर्मों का अन्त कर देते हैं और मोक्ष प्राप्त जीवये पिओ किचा' हत्याहि शब्दार्थ' - 'जीवियं - जीवितम् असंयम भुवनने 'पिट्ठओ किच्चा - पृष्ठतः कृत्वा' मनाहर ने 'कम्मुण - कर्मणां' ज्ञानावरणीय आहि माह प्रारना धातिया उना 'अंत - अन्तम् ' भतने 'पार्वति - प्राप्नुवन्ति' प्राप्त रे छे. 'जे -ये' हे यु३ष सहज उना क्षयशुभां असमर्थ होय हे ते यु३ष 'कम्मुणा - कर्मणा' तय सत्यम विगेरे सहनुष्ठान ३५ हियाधी 'समुही भूया - संमुखीभूताः ' भाक्षनी सन्मुख मनीने 'मग्ग' - मार्गम्' नोत सभ्य दर्शन, ज्ञानयारित्र ३५ भोभाने 'अणुमा सइ - अनुशासति' लव्याने उपदेश ४रे छे. अर्थात् સભ્યેાને ઉપદેશ દ્વારા મોક્ષમાગ બતાવે છે. ૧૦ના અન્વયા -જીવન પ્રત્યે નિસ્પૃહ થઈને તેઓ શું કરે છે? એ કહે. વામાં આવે છે—અસ'યમમય જીવનની ઈચ્છાથી રહિત મહાપુરૂષ અસંયમી જીવનનો ત્યાગ કરીને અર્થાત્ તેનાથી નિરપેક્ષ બનીને જ્ઞાનાવરણીય વિગેરે આઠે કર્મોના અથવા ચાર ઘાતિયા કમાંના અંત કરે છે, અને મેક્ષ પ્રાપ્ત For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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