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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - समयार्थबोधिना टीका प्र. श्रु. अ. १४ ग्रन्थस्वरूपनिरूपणम् ४४५ अन्वयार्थः-गुरुकुलनासिनो धर्ममुपदिशन्ति, इत्याह-(धम्मं च) धर्म च श्रुतचारित्रलक्षणं धर्मम् (सं वाइ) संख्यया-सवुद्धया स्वयं धर्म ज्ञात्वा परेभ्यः (वियागरंति) व्यागृणन्ति-उपदिशन्ति मुनयः (ते) ते-एवं विधास्ते साधवः (बुद्धा हु) बुद्धा:-त्रिकालदर्शिनः खलु-निश्चयेन (अंतकरा) अन्तकरा:-सश्चित सकलकर्मणां विनाशकाः (भवति) भवन्ति (ते) ते-एवंविधा:- यथाऽवस्थित. धर्मप्रतिपादकाः (दोण्हवि) द्वयोरपि-स्वपरयोः (मोयणाए) मोबनाय-कर्मपाशविमोचनाय विमोचनया वा (पारगा) पारगाः-संसारसमुद्राद् उत्तारका भवन्ति, तथा एवंभूताः साधयः (संसोधिय) संशोधितम्-पूर्वापराऽविरुद्धम् (पह) प्रश्नम् (उदाहरंति) उदाहरन्ति-कथयन्ति ॥१८॥ 'मोयणाए-मोचनाय' कर्मपाश से मुक्त होने के लिए 'पारगा-पारगाः' संसारसमुद्र से पार पहोंचाने वाले होते हैं तथा ऐसे साधु 'संसोधियं -संशोधितम् पूर्वापरसे अविरुद्ध 'पण्हं-प्रश्नम् प्रश्नों को 'उदाहरंतिउदाहरन्ति' कहते हैं ॥१८॥ ___ अन्वयार्थ-मुनि लोग श्रुतचारित्र रूप धर्म को सम्पम् बुद्धि से स्वयं जान कर दूसरे को उपदेश देते हैं। इस प्रकार के वे साधु महात्मा त्रिकालदर्शी और सकल सश्चित कर्म का विनाशक होते हैं। इस प्रकार यथावस्थित धर्म के प्रतिपादक बेमुनिगण अपने और दूसरे को कर्मपाश से छोड़ाने के लिये या कर्मपाशसे छोड़ा कर संसार समुद्र से पार करने वाले होते हैं और इस प्रकार के साधु पूर्वापर विरोध से रहित प्रश्न का उत्तर देते हैं ॥१८॥ याताना भने भी माना 'मायणाए-मोचनाय' भाशया भुत भोट 'पारगा-पारगाः' संसार सागरथी पार पडायावावा हाय छे. तथा सेवा साधु संसोधिय-संशोधितम्' पूर्वापरथी मषि३च 'पण्ह'-प्रश्नम्' प्रभने उदा. हरति-उदाहरन्ति' ४३ छ. ॥१८॥ અન્વયાર્થ–મુનિલેક શ્રત ચારિત્ર રૂપ ધર્મને સમ્યક્ બુદ્ધિથી સ્વયં જાણીને બીજાને ઉપદેશ આપે છે. આ પ્રકારના તે સાધુ મહાત્માએ ત્રિકાલ દશ અને સઘળા સંચિત કર્મોના નાશ કરવાવાળા હોય છે. આ રીતે યથાવસ્થિત ધર્મના પ્રતિપાદક તે મુનિગણ પિતાને અને બીજાને કમંપાશથી છોડાવવા માટે અથવા કપાશથી છોડાવીને સંસાર સમુદ્રથી પાર કરવાવાળા હેય છે. અને આવા પ્રકારના સાધુ પૂર્વાપર વિરોધથી રહિત પ્રશ્નોના ઉત્તર આપે છે ૧૮ For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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