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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ:-(डहरेण) दहरेण स्वापेक्षा वयसा कनिष्ठेन बालेन 'वुडूढेण' वृद्धेन-चयोऽधिकेन एवम् (राइभिवणावि) रानि केन-रत्नाधिकेनापि दीक्षा. पर्यायज्येष्ठेन (समदएणं) समवलेन अनुशासितस्तु प्रमादस्खलितचरणं प्रति प्रेरितः सन् प्रतियोधितोऽ ( य) सम्मकाया 'थिरतो' स्थिरता-संयमपरिपालनस्थैर्येण (णाभिमच्छे) नामिछ। तदुपदेशं न स्वीकरोति पुनः प्रमादस्खलितचरणं करोति, तदा (से) खः प्रमादस्खलाकर्ता साधु (णिज्जंतए वावि) नीयमानोवाऽपि मोक्षमार्ग प्रति प्रेगनामाऽपि तद करणतया सः (अपारए) अपा. रगः-न संसारसागरपारयो भवति ॥७॥ स्थिरतः' संयम के परिपालन में स्थिरताको 'णाभिगच्छे-नाभिगच्छेत्' उसके उपदेशको स्वीकार नहीं करता है और बारबार प्रमाद करता रहे तष 'से-सः' प्रमाद करने वाला साधु 'णिज्जतिएबावि-नीयमान एव' संसार समुद्र में ले जानेवाले होते । 'अपारए-आपरगः' संसार सागर से पार करने वाले नहीं होते हैं । ७॥ ____ अन्वयार्थ-दहर अर्थात् उभर में अपने से छोटी उमरवाला साधु से या क्योऽधिक वृद्ध साधु से एवं दीक्षापर्याय में अपने से बडे साधु से अथवा दीक्षापर्याय श्रुत या वय में अपने से तुल्य साधु से प्रमाद स्खलनाचरण के विषय में समझाए जाने पर जो साधु कोधादिके वशीभूत होकर संयम का परिपालन नहीं करता है, फिर से प्रमाद स्वलन और गलती करता ही रहता है, वह प्रमाद गल्ता करने वाला साधु इस संसार समुद्र के प्रवाह में वहता हुआ संसार सागर का पारगामी नहीं होता है ॥७॥ स्थिरता ३५ ‘णाभिगच्छे-नाभिगच्छेत्' । उपदेशन वी४२॥ नथी. मने पारंवार प्रभार ४२ते२९ त्यारे ‘से-सः' ने प्रभाह ४२वावाणा साधु 'णिज्जंतएवावि-नीयमान एव' संसार समुद्रमा वावगे। थाय छे. अपारए-अपा. रगः' संसार सागरथी पा२ ४२वापाणे। यते। नथी. ॥७॥ અન્વયાર્થ–ડહર અર્થાતુ ઉમરમાં પિતાનાથી નાની ઉમરવાળા બાલા સાધુથી અથવા વયેવૃદ્ધ સાધુથી તથા દીક્ષા પર્યાયમાં પિતાનાથી મેટા સાધુ પાસેથી અથવા દીક્ષા પર્યાય શ્રત અથવા વયમાં પિતાની બરોબર એવા સાધુ દ્વારા પ્રમાદ, ખલનાચરણના સંબંધમાં સમજાવવામાં આવેથી જે સાધુ ક્રોધાદિને વશ બનીને સંયમનું પરિપાલન કરતા નથી અને ફરીથી પ્રમાદ, ખલન અને ભૂલે કરતા જ રહે આ પ્રમાદ કરવાવાળે સાધુ આ સંસાર રૂપી સમુદ્રના પ્રવાહમાં વહેતે થકો સંસારસાગરની પાર જઈ શકતા નથી. For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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