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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५५ समयार्थबोधिनी टीका प्र. ७. अ. १४ ग्रन्थस्वरूपनिरूपणम् अन्यवार्थः-(जहा) तथा-येन प्रकारेण (अपत्तजातं) अपनजातम्-अ स्पमपक्षम् (सावासगा) स्वावासकाव-स्वकुलात् (पविउं) प्लवितुम्-उत्पतितुम् (मन्नमाणं) मन्यमानम्, परन्तु उत्पतितुम् (अचाइयं) अशक्नुवन्तम् (तं तरुण) ते तरुणम् बास्मानं मन्यमानं तं बालम् (दियापोत) द्विजपोतं पक्षिशिशुम (अपत्तजातं) अपरजातम्-पक्षरहितम् अतएव (अन्यत्तगम) भव्यक्तगमम् उड्डीय गन्तुमसमथै ज्ञात्वा (ढंकाइ) ढङ्कादयो मांसाभिरुचयः पक्षिणः (हरेग्मा) हरेयु:-कच्चा उत्थाप्य नयेयुः व्यापादयेयुरितिभावः। यथाऽजातपक्षं पति मन्यमानम्' इच्छा करता हुआ उडने में 'अचाइयं-अशुक्नुषन्तम्' अशक्तिवाला होता है ऐसा ही 'तं तरुणं-तं तरुणम्' अपने को तरुण माननेवाला उस बाल अज्ञानी को 'अपसजातं-अपनजातम्' पंखरहित ऐसे 'दियापोतं-द्विजपोतम्' पक्षि शिशु कि जो 'अव्वत्तगम-अध्यक्त गमम्' उहकर जाने में असमर्थ है ऐसे पक्षिशावकको 'डंकाइ-बडादयः' बा आदि मांसाहारी पक्षी 'हरेज्जा-हरेयुः' हर लेते हैं अर्थात् मार डालते हैं ॥२॥ ___ अन्वयार्थ-जिस प्रकार अनुत्पन्न पाखवाले पक्षी के बच्चे जो कि अपने घोंसले से उडना चाहता है। किन्तु पांख न होने से उड कर जाने में असमर्थ है। ऐसे अपने को तरुण मानने वाले पांख रहित पक्षी के शिशु को ढङ्क वगैरह मांस भक्षक पक्षी मार डालते हैं। अर्थात् नन्हें पक्षी के शावक (बच्चे) जो कि घोसला छोडकर इधर उधर भटकता रहता है। उसको मांस खानेवाले ढङ्क वगैरह वडे घातकी पक्षी ५२ 6341मा 'अचाइय-अशक्नुवनम्' माशत 8य छे मे। 'तं तरुण-त वरुणम्' याताने १३२५ मानववार से मार-मज्ञानाने 'अपत्तजात-अपन. जातम्' ५iv विनाना सेवा दियापोत-द्विजयोतम्' पक्षिना मानी 'अव्वत्तगम-अव्यक्तगमम्' अन पाभा असमर्थ छे. मे। पक्षिना ५२याने 'काइ-ढकादयः' ८ विगैरे मांसाहारी पक्षी 'हरेज्जा-हरे युः' श . અર્થાત્ મારી નાખે છે. પરા અન્વયાર્થ–જે પ્રમાણે જેની પાંખ આવી નથી તેવું પક્ષીનું બચ્ચું કે જે પોતાના માળામાંથી ઉડવા ઈચ્છે છે પરંતુ પાંખ ન હોવાથી ઉડીને બહાર જવા શક્તિમાન નથી. એવા અને પિતાને તરૂણ માનવાવાળા પાંખ વિનાના પક્ષીના બચ્ચાને ટૂંક વિગેરે માંસભક્ષક પરિક્ષા મારી નાખે છે. અર્થાત્ નાના, પશ્વિના મરચાને કે જે માળે છેડીને આમ તેમ ભટકે છે, તેને માંસભક્ષક પક્ષિઓ જબર જસ્તીથી મારીને ખાઈ જાય છે. એ જ પ્રમાણે એકલાજ-સ, For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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