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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १४ ग्रन्थस्वरूपनिरूपणम् ___ अन्वयार्थः- (इह)-इह-अस्मिन् प्रवचने जिनशासने वा ज्ञातसंसारस्वभाव कश्चित् पुरुषः (गंथ) ग्रन्थम् बाह्याभ्यन्तरधनधान्यादिकम् 'विहाय' विहायपरित्यज्य (उद्याय) उत्थाय-व्रज्यां गृहीत्वा (सिक्खमाणो) शिक्षमाणः-शिक्षा-प्रहमासे वनारूपाम् सम्यगासेश्मानः (सुवंभचेरं) सुब्रह्मचर्यम्-सम्यग्रूपेण संयमम् (वसेज्जा) वसेत् आचार्यसमीपे यावज्जीवनं वसेत् तथा (ओवायकारी) अवपातकारी गुज्ञिापरिपालको भूत्वा (विणयं) विनयम् (सुसिक्खे) सुशिक्षेतपरिग्रहको 'विहाय-विहाय' छोडकर प्रव्रज्याको 'उट्ठाप-उत्थाय' ग्रहण करके 'सिक्खमाणो-शिक्षमाणः' ग्रहण और आसेवनरूप शिक्षा को करता हुआ 'सुबंभचेरं-सुब्रह्मचर्यम्' सम्पक प्रकार से संयममें 'वसेजा-वसेत्' स्थिर रहे तथा 'मोवायकारी-अवपातकारी' आचार्यादिकी आज्ञा का पालन करता हुआ 'विणयं-विनयं' विनयकी 'सुसिक्खेसुशिक्षेत्' शिक्षा का अभ्यास करें इस प्रकार 'जे-यः' जो पुरुष 'छेय-छे कः' संयम के पालन में निपुण होकर 'विप्पमायं-विप्रमादम्' कोई भी प्रकार का प्रमाद 'न कुज्जा-न कुर्यात्' न करें अर्थात् सुचारु रूपसे संयमका पालन करे ॥१॥ ___ अन्वयार्थ इस जिन शासन रूप जैनागम से संसार स्वभाव को जानने वाला पुरुष वात्य और आभ्यन्तर धनधान्य लोभ क्रोधादि कषाय को छोडकर प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए उद्यत होकर दीक्षा ग्रहण कर ग्रहणासेवना रूप शिक्षा का सम्यग्रूप आसेवन करते हुए आचार्य के समीप अच्छी प्रकार ब्रह्मचर्य रूप संयमका जीवनपर्यन्त ने 'विहाय-विहाय' । प्रन्या 'उदाय-उत्थाय' अहष्णु शन मा सेवन ३५ शिक्षा ग्रहण ४२ते'सुबंभचेरे-सुब्रह्मचर्यम्' सभ्य माथी सयममा 'वसेन्जा-वसेत्' स्थि२ २३ तथा 'ओवायकारी-अवपातकारी' पायाय विगैरेनी माज्ञानु ल ४२ते। 'विणयं-विनयम्' विनयनी 'सुसिक्खेमशित शिक्षानी सन्यास १२ मा शत 'जे-यः' २ ५३५ 'छेय-छेक' सयम पालन ४२वामा निपुण मनीने 'विप्पमाय-विप्रमादम्' ५५ प्रा. २ने। प्रभाह न कुज्जा-न कुर्यात्' । ४२ अर्थात् सभ्य३ ४।२था सयभनु પાલન કરે અન્વયાર્થ– આ જનશાસન રૂપ જેનાગમથી સંસારના સ્વભાવને જાણવાવાળા પુરૂષે બાહ્ય અને આભ્યન્તર ધન ધાન્ય લાભ કોધાદિ કષાયને છેડીને પ્રવજ્યા ગ્રહણ કરવા માટે ઉદ્યમી થઈને દીક્ષા ગ્રહણ કરીને ગ્રહણાસેવના રૂપ શિક્ષાનું સમ્યક્ પ્રકારથી આસેવન કરીને આચાર્યની પાસે સારી For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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