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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १३ याथातथ्यस्वरूपनिरूपणम् ३६९ --- टीका- 'मुच्चे' मुदः - मोदनमुत्- दर्प - आनन्दः तत्स्वरूपा अर्चा पथादिकालेा यस्य समुदः - प्रशस्तलेश्यावान् अथवा 'मुच्चे' इत्यस्य मृताच इति च्छाया, तदर्यच मृतेव स्नानविलेपनादि संस्काराभावाद् अर्चा-वनु:शरीरं यस्य स मृतार्चः, तथा - 'दिवम्मे' दृष्टधर्मा, दृष्टो धर्मः श्रुतचारित्रलक्षणो येन सर्मा श्रुतचारित्रवर्यसंपषा 'भिक्खू' भिक्षुः साधुः-निरवयमिक्षणशीलः 'गाणं व' ग्रामम् चकारात् खेहादिकम् नगरं च' नगरम् चकारात् पतनादि 'अणुपविला' अनुपविश्य मिक्षार्थम् 'से' सा'एस' एषणाम् अनेषण और उसके विपाक को भी जानते हुए अन्न पान को लोभ छोट कर संघम मार्ग में विचरे ॥ १७ ॥ टीकार्थ- भिक्षु का एक विशेषण 'मुयच्चे' दिया गया है। इसका एक संस्कृत रूप है- 'मुद' जिसका अर्थ है प्रशस्त श्या वाला दूसरा संस्कृतरूप है- 'मृताची' जिसका अर्थ है मृत शरीरवाला अर्थात् स्नान, विलेपन आदि संस्कार न करने के कारण जिसका शरीर मृततुल्य है। तात्पर्य यह हुआ कि जो भिक्षु शुभ लेश्या से युक्त है। शरीर संस्कार का त्यागी है तथा जो श्रुत और चारित्र धर्म को जानने वाला है अर्थात् जो ज्ञपरिज्ञा से धर्म को जानकर आसेवन परिक्षा से उसका सेवन करता है । वह ग्राम, खेडे आदि में या नगर तथा पत्तन आदि में भिक्षा के लिए प्रवेश करके गवेषणा, ग्रहणैषणा और परि વિપાકને પણ જાણતા થકા અન્નપાનને લેાલ છેાડીને સાયમમાગ માં વિચરણ કરે. ॥૧૭ના 'मुयच्चे' आपवामां आवे टीमर्थ - अडियां भिक्षुनु मे विशेष छे, तेनी संस्कृत छाया 'मुदः' से प्रभाये थाय छे। तेन मर्थ प्रशस्तबेश्यावाजा से प्रमाणे थाय छे तथा तेनी मी छाया 'मृतार्थः ' शेवी भने છે, તેને અ મરેલા શરીરવાળા આ પ્રમાણે થાય છે, અર્થાત્ સ્નાન વિલેપન વિગેરે સ ંસ્કાર ન કરવાનાં કારણે જેનું શરીર મરેલા જેવુ છે, કહેવાનુ' તાપ એ થયું કે જે ભિક્ષુ જીભ લેશ્યાથી યુક્ત હાય શરીરના સરકારને ત્યાગ કરવાવાળા હોય, તથા જે શ્રુત અને ચારિત્ર ધને જાણવાવાળા છે, અર્થાત્ જ્ઞ પિરજ્ઞાથી ધને જાણીને સેવન પિજ્ઞાથી તેનું સેવન કરે છે, તે ગામ, ખેડ, વિગેરેમા અથવા નગર કે પત્તન વગેરેમાં ભિક્ષા માટે પ્રવેશ કરીને ગવેષણા, પશુા અને પિરભાગૈષણા ને જાણુતા થકા તથા ઉદૂગ सू० ४५ For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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