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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - सूत्रकृताङ्गसत्रे अन्वयार्थः--(से सः पूर्वोक्तोऽहङ्कारवान् साधुः (एगंतकडेग उ) एकान्तकूटेन तु-अत्यन्त मोहमायादौ समासकः (पले.) पर्येति-संसारमागरमेव पुनः पुनः प्राप्नोति, न वदाचित् संसाराद् विमुक्तो भवति (मोणपसि) मानपदे संयमे (गोरे) गोत्रे विश्वद्याणी-समुद्रापालाकामाधारभूते (ण निइ) न विद्यते-न तिष्ठति (जे) या खलु (माणणटेण) माननार्धन-समानापर्थेन (वसुमन्नतरेण) चसुमन्यतरेण-संपमोत्कर्षेण ज्ञानादिना च मन्दं करोति एवम् (अबु. ज्झमाणे) अबु दद्यमानः-परमार्थमबुध्यमानः सन् (विउक्कसेज्जा) व्युत्कर्षयेत्आत्मानं सरकारमनादिया गर्वयुक्तं करोहि ॥॥ मौनपदे' वह संगम में 'गोत्ते गोत्रे' आमत्रों के आधाररूप धादिज्जइन विद्यते' नहीं है जे-या सर्वज्ञ के मतमें जो पुरुष 'माणणढे-माननार्थेन' संमानादिसे तथा 'वप्नुभन्नतरेण-वसुमन्यतरेण संघमके उत्कर्ष से अथवा ज्ञानादि से मद करना है ऐसा पुरुष 'अबुज्झमाणे-अबुध्यमानः' परमार्थ को नहीं जानता हुआ 'विउक्कसे जा- व्युत्कर्ष येत्' अपने आत्माको सरकार और मानादि से नीचे गिराता है ॥९॥ अन्वयार्थ-वह पूर्वोक्त अहंकारी साधु अत्यन्त मोह माया के जाल में फंसकर संसार रूप समुद्र में वारंवार डूबता है कभी भी संसार से विमुक्त नहीं हो पाता, और निरवद्य आगमका आधारभूत संयम मार्ग में नहीं रहता और अपने संमानादि प्राप्ति के लिए संघमोत्कर्ष एवं ज्ञानादि से मद (अहंकार) करता है और परमार्थ तत्व को नहीं जानता हुमा भपने को सत्कार मानादि से नीचे गिराता है ॥९॥ पदे त भयभमा 'गोत्ते-गोत्रे' भागभीनी भाधा२ ३५ ‘ण विज्जइ-न विद्यते' य/ शत नथी 'जे-यः' रे ५३५ सजना मतमा 'मागणद्वेण-माननार्थेन' समान विश्था तथा 'वसुमन्नतरेण वसुमन्यतरेण' सयमना 63थी भया ज्ञानाही मह ४२ छ सय ५३५ 'अबुझ पाणे--अबुध्यमानः' ५२भाथन न त ५। 'विउक्कसेज्जा-व्युत्कर्षयेत्' पाताना मामाने सा२ અને માનાદિથી નીચે પાડે છે. છેલ્લા અન્વયાર્થ–એ પૂત અહંકારી અત્યંત મેહમાયાની જાળમાં ફસાઈને સંસાર રૂપી સમુદ્રમાં વારંવાર ડૂબે છે, કોઈ પણ સમયે સંસારથી મુક્ત થઈ શક્તા નથી. તથા નિરવા અગમના આધારભૂત સંયમ માર્ગમાં રહેતા નથી. અને પિતાના સન્માનની પ્રાપ્તિ માટે સંમત્કર્ષ તથાનાનાદિમાં મદ (અહંકાર) કરે છે. અને પરમાર્થ તત્વને જાણ વિના જ પિતાને સત્કાર અને મા પાનથી નીચે પડે છે. મા For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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