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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी का प्र. श्रु. अ. १३ याथातथ्यस्वरूपनिरूपणम् ३२७ प्रस्याऽयं मार्गः सर्वदोषरहितः, तथापि स्वाग्रहेण यस्तत्र दोष प्ररूपयति । तथा यः स्वाभिप्रायेणाऽऽचार्यपरम्परां परित्यज्य व्याख्यानं करोति, तथा- सर्वज्ञमणीतागमे शङ्कया मृषावादं करोति, स उत्तमगुणाधिकारी न भवतीति भावार्थः ॥३॥ मूलम्-जे यावि पुट्रा पलिउंचयंति, आयाणम खलु वंधति । असाहुणो तेईह साहुमाणी, मायणि ऍसंति अर्णतघायां। छाया-ये चापि पृष्टाः परिकुश्चयन्ति, आदानमर्थ खलु वश्चयन्ति । असाधवस्ते इह साधुमानिनो, मायान्विता एष्यन्त्यनन्तघातम् ।। ___ भावार्थ यह है कि सर्वज्ञ का यह मार्ग सर्व दोषों से रहित है, तथापि अपने आग्रह से जो उसमें दोष कहता है, जो आचार्य परम्परा त्याग कर अपना मनमाना व्याख्यान करता है तथा जो सर्वज्ञप्रणीत आगम में शंका करके मिथ्या भाषण करता है, वह उत्तम गुणों का अधिकारी नहीं होता ॥३॥ __ 'जे यावि पुट्ठा पलिउंचयंति' इत्यादि। शब्दार्थ-'जे याषि-ये चापि' जो लोग परमार्थता शास्त्र के रहस्य को नहीं जानते हैं वे अन्यके द्वारा 'पुट्ठा-पृष्टाः' हे साधो! आपके गुरु का नाम क्या है ? ऐसा पूछने पर पलिउंचयंति-परिकुश्चयन्ति' अपने गुरुका नाम छिपाकर अधिक ज्ञानवाले कोइ अन्यका नाम कहते हैं वे लोग 'आयाणमटुं-आदानमर्थम्' ज्ञानादिसे अथवा मोक्ष रूप કહેવાને ભાવાર્થ એ છે કે--સર્વને આ માર્ગ સર્વ દે વિનાને છે, તે પણ પિતાના આગ્રહથી જેઓ તેમાં દોષ કહે છે. જેઓ આચાર્ય પરંપરાને ત્યાગ કરીને પિતાનું મન માન્યું વ્યાખ્યાન કરે છે, તથા જે સર્વ પ્રણીત આગમમાં શંકા બતાવીને મિથ્યા ભાષણ કરે છે, તે ઉત્તમ ગુણોને અધિકારી થતું નથી. ૩ 'जे यावि पुद्रा पलिउचयति' त्याह शहाथ-'जे यावि-ये चापि' रेस मरी रीत शास्त्रमा स्यने नयता नथी तो भान द्वारा 'पुद्रा-पृष्टाः' साधु सापना शु३ नाम छे। ये प्रमाणे पूछामा यावे त्यारे 'पलिउंचयति-परिकुच्चयन्ति' પિતાના ગુરૂનું નામ છુપાવીને વધારે જ્ઞાનવાળા બીજા કોઈનું નામ પિતાના ४३ तरी डे छे. ते साडी 'मायाणमट्ठ-आदानमर्थ म्' ज्ञानाEिथी अथ! For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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