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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. १२ समवसरणस्वरूपनिरूपणम् २९५ - अन्वयार्थ : - (ते) ते - आस्रवनिरोधेन कर्मक्षवकास्तीर्थकरा: (लोगस्स ) लोक. स्य प्राणिसमूहस्य (तीय उपभमणागयाई) अतीतमत्युत्पन्नानागवानि, भूत वर्तमानभविष्यत्कालभावीनि सुखदुःखादि ( तहागयाई) तथागतानि यथा - वस्थितानि (जाति) जानन्ति । तथा ते तीर्थकरा: (अन्नेसिं) अन्येषां जीवानाम् (नेवारी) नेतारः - मार्गदर्शकाः सन्ति किन्तु ते स्वयम् (अगन्नणेया) अनन्य नेताः - नान्ये तान् नेतुं समर्थाः सन्ति । तर्हि कथमेतादृशा जाता ? इत्याह- (ते) ते-तीर्थ 'ते तीय उपपन्नमणागयाई' इत्यादि । शब्दार्थ- 'ते - ते' वे आस्रव के निरोधसे कर्मका क्षय कहने वाले वीतराग पुरुष 'लोगस्स - लोकस्य' प्राणी समूहके 'तीय उत्पन्नमणागयाहूं - अतीतोत्पन्नानागतानि' भूत, वर्तमान और भविष्य ऐसे कालत्र या वृत्तांतो को 'तहागयाई - तथागतानि' यथार्थ रूपसे 'जाणंतिजानन्ति' जानते हैं एवं वे तीर्थकरादि 'अन्नेति अन्येषां दूसरे जीवोंके 'तारा - नेतारः' नेता अर्थात् मार्गदर्शक है परंतु स्वयं 'अणनणेयाअनन्य नेता: नेता रहित हैं अर्थात् उनका कोई नेता नहीं है 'ते ते' वे तीर्थकरादि ज्ञानी पुरुष 'हु-च' निश्चय 'बुद्धा-बुद्धाः स्वयं बुद्ध होने से 'अंतकडा - अन्तकृताः' सकल कर्मों का नाश करनेवाले होते हैं ।। १६ ।। अन्वयार्थ - आश्रयका निरोध करके कर्मों का क्षय करनेवाले तीर्थकर प्राणियों के भूत, वर्त्तमान और भविष्यत् काल को सुख दुःख को यथार्थ रूप से जानते हैं। वे अन्य जीवों के नेता मार्गदर्शक होते 'ते ती उत्पन्नमणागयाइ" त्याहि શબ્દા --તે-તે' આસત્રના રેાકવાથી કર્મોને ક્ષય માનવાવાળા વીતराजपु३षा 'लोगस्स - लोकस्य' आशियाना सभूडना 'तीयउत्पन्नमणागयाई - अतीतोत्पन्नानामतानि' भूत, वर्तमान, भने लविष्य शोभत्र अजना वृत्तांताने 'तागयाई' - तथागतानि' यथार्थ'पाथी 'जाणंति - जानन्ति' लऐ छे भने तीर्थ राहि 'अन्ने सि- अन्येषां' जील कवोना 'नेतारो नेतारः' नेता अर्थात् भार्गदर्श' छे. परंतु स्वयं' 'अणन्नणेया- अनन्यनेताः ' नेता रहित छे, अर्थात् तेयाना नेता नथी 'वे ते' तीर्थ आदि ज्ञानीपु३ष 'हु-य' निश्चय 'बुद्धा - बुद्धाः' स्वयं' शुद्ध होवाथी 'अंतकडा - अन्तकृताः' सम्स भनि नाश वाजा होय. ॥१६॥ અન્વયા-આસવાના નિરોધ કરીને ક્રમના ક્ષય કરવાવાળા તીથકર પ્રાણિયાના ભૂત, વર્તમાન અને ભવિષ્ય કાળને સુખ દુઃખ અને યથાથ પણાથી જાણે છે, તેઓ અન્ય જીવેાના નેતા માદક અને છે, પર ંતુ For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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