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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १२ समवसरणस्वरूपनिरूपणम् २९३ अन्वयार्थः- (बाला) वालाः (कर्मणा कर्मक्षयो भवति) इति मन्यमाना अज्ञानिनः (कम्मु गा) कर्मणा-सावद्यारम्भरूपेण आस्रवद्वारेण (कम्म) कर्म-पा कर्म (न खवें ति) नक्षश्यन्ति-क्षपयितुं न शक्नुवन्ति, अपितु (धीर) धीराः-महासत्त्ववन्तः पुरुषाः (अकम्मुणा) अकर्मणा-आस्रवनिरोधेन (कम्भ) कर्म पाप कर्म (खति) क्षयन्ति, अतः (मेधात्रिणो) मेधाविना-विशिष्टबुद्धिशालिनः, अत एव (लोभमयावतीता) लोभम यादतीता:-परिग्रहातीता:-द्रव्यभावपरिग्रहवनिताः अतएव (संतोसिणो) सन्तोषिणः-सन्तोषवन्तः संयताः (पाच) पापम्-सावद्या. नुष्ठानम् (नो पकरें ति) नो प्रकुर्वन्ति ॥१५॥ टीका-किश्चान्यत् 'बाला' बाला इव बाला:-अविवे किना-सदसद्विवेक विकला:-मिथ्यात्वदोषैरभिभूताः 'कम्मुगा' कर्मणा-सावद्यकर्मानुष्ठानेन प्राणा. तिपातादिरूपेण 'कम्म' कर्म 'न खति' न क्षपयनिध-कर्मणः क्षयार्थमुत्सुकाः । उद्युक्ता अपि कर्म क्षायितुं न समर्था भवन्ति, किन्तु 'धीरा' धीराः-परीषहोप , मयादतीताः' परिग्रह से दूर रहते हैं अतएव संतोसिणो-संगोषिणा' संतुष्ट रहते हुवे 'पावं-पापम्' सावध अनुष्ठान 'नो पकरेंति नो प्रकुर्वन्ति' नहीं करते हैं ॥१५॥ अन्वयार्थ-अज्ञानी जीव (सावद्य) कर्म से कर्म का क्षय नहीं कर सकते, धीर पुरुष अकर्म से (आश्रव निरोध से) कर्म का क्षय करते हैं अतः मेधावी पुरुष परिग्रह से (अधवा लोभ और मद से) रहित होकर, सन्तोष धारण करके पाप नहीं करते है ॥१५॥ टीकार्थ-सत् असत् के विवेक से शून्य और मिथ्यात्व आदि दोषों से परास्त अज्ञानी जीव प्राणातिपात रूप सावध कर्म के अनु. ष्ठान से कार्यों का क्षय करने के लिए उत्सुक होते हुए भी क्षय करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं। किन्तु जो पुरुष धीर हैं अर्थात् परीषहों 'संतोषिणो-संतोषिणः' सतुट नीन 'पावं पापम्' सापय मनुहान 'ना पकरे ति-नो प्रकुर्वन्ति' ४२ता नथी ॥१५॥ - અવયાર્થ—અજ્ઞાની જીવ (સાવધ) કર્મથી કમને ક્ષય કરાવી શકતા નથી. ધીર પુરૂષ અકર્મથી (આસોને રોકવાથી) કર્મને ક્ષય કરે છે તેથી મેધાવી પુરપ પરિગ્રહથી (અથવા લેભ અને મદથી) રહિત બનીને સતિષ ધારણ કરીને પાપ કર્મ કરતા નથી. આપા ટીકાથ–સત્ અસના વિવેક રહિત અને મિથ્યાવ વિગેરે દેશોથી પરાજય પામેલા અજ્ઞાની છે પ્રાણાતિપાત રૂપ સાધ્ધ કર્મના અનુષ્ઠાનથી કમેને ક્ષય કરવા માટે ઉત્સુક થતા હોવા છતાં પણ ક્ષય કરવામાં સમર્થ થતા નથી, પરંતુ જે પુરૂષ ઘીર છે, અર્થાત્ પરીષહ અને ઉપસર્ગોને સહન For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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