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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Drama सूत्रकृतासूचे । अन्वयार्थ:-(ज) यं संसारम् (सलिलं ओह) स्वयम्भूरमणसलिलौघवत् (अपारग) अपारकम्-पारयितुमशक्यम्, (आहु) आहुः-कथयन्ति-तीर्थकरगणधरादयः तथैव-हे मानव ! इदम् (भवगहण) भवगहनम्-संसाररूपं धनम् (दुमोक्वं) दुर्मोक्षम्-दुरुत्तरम् (जाणादि) जानीहि यतः (जंसी) यस्मिन् संसारे ये जनाः 'विसय. गणाहि) विषयाङ्ग नासु-विषयपधानासु स्त्रीषु विषयेषु स्त्रीषु च (विसमा) विषण्णाः -आसक्ताः विषयाङ्गनाभिर्वा वशीकृता भवन्ति ते (दुह भो वि) द्विधातोऽपि-द्विविधमपि (लोय) लोकम्-संसारम् स्थावररूप जङ्गमरूपं च अथवा आकाशाश्रितरूपं पृथिव्याश्रितरूपंच (अणुसंचरंति) अनुपंचरन्ति-भवाद्भवान्तर परिभ्रमन्ति इति ॥१४॥ धरादिने कहा है तो हे मनुष्यो ! यह 'भवगहणं-भवगहनम्' संसाररूपी धन को 'दुमोक्ख-दुर्मोक्षम्' दुःखसे ही छुटकारा पा सके ऐसा 'जाणाहि-जानीहि जानो कारण की 'जैसी-स्मिन्' जिस संसार में जो मनुष्य 'विसयंगणाहि-विषयाङ्गनाभि:' शब्दादि विषयो के द्वारा एवं स्त्रियों से 'विसण्णा-विषण्णा' वशीकृत होते हैं अर्थात् विषयो एवं स्त्रियोंमें आसक्त होते हैं वे लोक 'दुहओ वि-विधाऽपि' स्थावर जंगमात्मक दोनों प्रकारके 'लोयं-लोकम्' संसार में 'अणुसंचरंतिअनुसंचरन्ति' एक भवसे दूसरे भवमें जाते हैं अर्थात् एक जन्मसे छूट कर दूसरा जन्मधारण करते हैं ॥१४॥ अन्वयार्थ-जिस संसार को स्वयंभूरमण समुद्र के जलसमूह के समान अपार कहा है, उस गहन संसार को दुस्तर समझो, जिसमें विषयों तथा स्त्रिओं में आसक्त हुए जीव त्रस तथा स्थावर रूप से अथवा भूचर तथा खेचर होकर परिभ्रमण करते रहते हैं ॥१४॥ मा ‘भवाहण-भवगहनम्' संसार ३५पनने 'दुमोक्खं-दुर्मोक्षम्' थी or पार पाभी शाय से 'जाणाहि-जानीहि' andu ४.२५५ हैं 'जंसी-यस्मिन्' २ स'सारमा भनुष्यो 'विनयंगणाहि-विषयाङ्गानाभिः' Avn विषयो द्वारा भने लियोथी 'विषण्णा-विषण्णाः' १२ ४२|यमा भने छे. मात्र विषयां અને સ્ત્રિયોમાં આસક્ત બને છે. ૧૪ અન્વયાર્ય–જે સંસારને સ્વયંભૂરમણ સમુદ્રના જલસમૂહની જેમ અપાર કહેલ છે, એ ગહન એવા સંસારને દુસ્તર સમજે. જેમાં વિષય અને સિયોમાં આસક્ત થયેલ છવ ત્રસ અને સ્થાવર પણાથી અથવા ભૂચર અને ખેચર થઈને લેકમાં પરિભ્રમણ કરતા રહે છે. ૧૪ For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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