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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८४ सूत्रकृताङ्गसौ ___ अन्वयार्थ–'ते' ते-तीर्थकरगणधरादयः ‘इह' इह-अस्मिन् 'लोगसि' लोके चतुर्दशरज्ज्वात्मके (चक्खु) चक्षुः-चक्षुरिव चक्षुः सर्वपदार्थप्रदर्शकत्वात् (उ) तु तथा-(णायगा) नायका:-नेतारः प्रधाना, अत एव ते (पयाणं) प्रजानां पाणिनाम् (हित) हितम्-इह परलोके च हितकरम् (मग्ग) मार्ग-मोक्षमार्गम् (अणुसासंति) अनुशासन्ति-कथयन्ति, किश्च-(लोए) लोकः यथा-यथारूपेण शाश्वतो वर्तते (तहा तहा) तथा तथा-तेन तेन रूपेण तं-लोकम् (सासयं) शाश्वतम् (आहु) कथयन्ति (माणव) हे मानव ! (जंसि) यस्मिन् लोके (पया) प्रजा:-प्राणिनः (संपगाढा) संप्रगाढा:-सं सम्यक्तया प्रकर्षेण व्यवस्थिताः सन्तीति ॥१२॥ नायक अर्थात् नेता होने से प्रधान-अर्थात् सर्व श्रेष्ठ है अतएव वे 'पयाणं-प्रजानां प्राणियों के हित-हितम्' इसलोक एवं परलोक में हित. करनेवाला 'मग्गं-मागे' मोक्षमार्ग को 'अणुसाप्तंति-अनुशासन्ति' बताते हैं और 'लोए-लोकः' चतुर्दशरज्ज्वात्मक अथवा पंचास्तिकायरूप यह लोक जिस जिस प्रकारसे शाश्वत है 'तहा तहा-तथा तथा' उस उस प्रकारसे 'सासयं-शाश्वतम्' सर्वकाल बने रहने से नित्य 'आहु-आहुः' कहते हैं 'माणव-हे मानव' हे मनुष्य 'सि-यस्मिन्' जिस लोकमें 'पया-प्रजा' प्राणी-जीव 'संपगाढा-संप्रगाढा' नारक तिर्यंच मनुष्य और देव पनेसे व्यवस्थित हैं । १२॥ ___ अन्वयार्थ तीर्थंकर आदि इस लोक में चक्षु के समान हैं। कामकप्रधान हैं, प्राणियों को हितकारी मार्ग का उपदेश देते हैं । जिस रूपसे बेभा 'चक्खु-चक्षुः नत्र सरमा छे. 'उ-तु' तथा 'णायगा-नायकाः' नाय से नता पाथी प्रधान अर्थात स श्रेष्ठ छे. मतमेव तेया 'पयाण-प्रजानी' प्राणियोना हित-हितम्' 24tal भने ५२i & ४२वाणा 'मग्गंमार्गम्' भाक्ष भागने 'अणुसासंति-अनुशासति' मत. छ. मने 'लोए-लोकः' ચૌદ રજવાભક અથવા પંચાસ્તિકાય રૂપ આ લેક જે જે પ્રકારથી શાશ્વત -नित्य छ 'तहा तहा-तथा तथा' से प्रारथी 'सासयं-शाश्वतम्' सब 10 विधमान २७वाथी नित्य 'आहु-आहुः' ४९ छ. 'मणव-हे मानव' हे भनुभ्यो 'जसि-यस्मिन्' २ai 'पया-प्रजाः' - 'संपगाढा-संप्र. गाढाः' ना२४, तिय"य, मनुष्य भने हेवपणाथी व्यवस्थित छ. ॥१२॥ અન્વયાર્થ-તીર્થકર વિગેરે આ લેકમાં નેત્ર સરીખા છે. નાયકપ્રધાન છે. પ્રાણિયને હિતકારી માર્ગને ઉપદેશ આપે છે. જે રીતે લેકશા For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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