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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे वादिनः सदेव सूर्यादि समस्तं जगत् नैव पश्यति, तत्र को दोषोऽस्माकम्, यथासन्तमपि सूर्यमुलूको न पश्यति तत्र को दोषोऽस्माकं सूर्यस्य वेति भावः ॥८॥ पुनरपि तन्मतं खण्डयितुमाह-'संवच्छर' इत्यादि । मूलम्-संवच्छरं सुविणं लक्खणं च. निमित्तं देहं च उप्पाइयं च । अटॅगमेयं बहवे अहित्ता, लोगंसि जाणंति अंणागताई ॥९॥ छाया-सांवत्सरं स्वप्नं लक्षणं च,-निमित्तं देहं चौत्पातिकं च । · अष्टाङ्गमेतद् बहवोऽधीत्य, लोके जानन्त्यनागतानि ॥९॥ विद्यमान सूर्य आदि समस्त जगत् को नहीं देख पाते हैं। अगर उलूक विद्यमान सूर्य को नहीं देखता तो इसमें हमारा या सूर्य का क्या अपराध है ? उसी प्रकार अगर अक्रियावादी प्रत्यक्ष जगत् को भी नहीं देखते तो हम या दूसरा कोई क्या करे । ॥८॥ पुनः अक्रियावाद का खण्डन करते हैं-'संघच्छरं' इत्यादि । . शब्दार्थ-संवच्छर-संवत्सर' सुभिक्ष अथवा दुर्भिक्षको बतानेपाला ज्योतिः शास्त्री, 'सुविणं-स्वप्नम् शुभ अथवा अशुभ स्वप्न के फाल को बताने वाला स्वप्नशास्त्र (२) 'लक्खणं च-लक्षणं च' आन्तर और पाह्य लक्षण से फलको बताने वाला शास्त्र (३) 'निमित्तं-निमिसम्' शुभाशुभ शकुन आदि से फल को बताने वाला निमित्तशास्त्र પણ વિદ્યમાન સૂર્ય વિગેરે સઘળા જગતને દેખી શકતા નથી. જે ઘુવડ વિદ્યમાન સૂર્યને ન દેખે તો તેમાં અમારે કે સૂર્યને શું અપરાધ છે? એજ પ્રમાણે જે અક્રિયાવાદિયે પ્રત્યક્ષ એવા આ જગતને ન પણ દેખે તે અમે અથવા અન્ય કેઈ શું કરી શકીએ ? તે તેઓની દૃષ્ટિને જ દેષ છે. પ૮ शथी. मठियावानुन ४२di छ ४-'संवच्छर' त्याल शाय-'संवच्छर-सवत्सर' सु मथवा हुने मतावाणु ति:शाख (१) सुविणं-स्वप्नम्' सारा अथम२५ स्वनना जनमता. वापानशास्त्र (२) 'लक्खणं च-लक्षणं च' भरना तथा महान सक्षया ५० मतावापाणु शा (3) 'निमित्त-निमित्तम्' शुभ अथवा मशुम For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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