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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनो टीका प्र. श्रु. अ. ११ मोक्षस्वरूपनिरूपणम् २०७ अन्वयार्थ:--(आयगुत्ते) आत्मगुप्तो मनोवाकायैः (सया दंते) सदा-सर्वकालं दान्तो कश्मेन्द्रियः (छि नसोए) छिन्नस्रोता:-छिन्नानि कर्माश्रवस्रोतांसि येन स तथा, (अणासवे) अनाश्रव-निर्गतमाणातिपातादिरूपास्रवद्वारः, इत्थंभूतः (जे) यः (पडिपुन्न) प्रतिपूर्णम् (अणेलिसं) अनीदृशमुपमारहितम् (सुदं धम्म अक्खाइ) शुद्धम्-दोषरहित धर्म-श्रुतचारित्ररूपम् आरू गति कथयति स आश्वासद्वीपो भवतीति ॥२४॥ टीका-'आयगुत्ते' आत्मगुप्त:-मनोवाकायैर्गुप्त आत्मा यस्य स आत्मगुप्तः । 'सया दंते' सदा दान्त:-वश्येन्द्रियः 'छिन्नसोए' छिन्नानि-नाशितानि संसारस्य स्रोतांसि-कर्मागमनमार्गरूपाणि येन स छिन्नस्रोताः। तथा-'अणासवे' अनाव:-निर्गता आश्रया-प्राणातिपातादिकः कर्मागमनरूपो यस्मात् सोऽना. स्रवः, 'जे' यः-एवंभूतः सः 'सुद्ध' शुद्धम्-भाणातिपतादिसमस्तदोषरहितम् वही 'पडिपुषण-परिपूर्ण' परिपूर्ण 'अणेलिस-अनीदृशम्' और उपमारहित सुद्धं धम्मं अक्खाइ-शुद्धं धर्मम् आख्याति' शुद्ध धर्मका कथन करता है ॥२४॥ ___ अन्वयार्थ --जो आत्मा को गोपन करने वाला, इन्द्रियों को सदा वश में करने वाला, कर्म के स्रोतों-आश्रय द्वारों को निरुद्ध कर देने वाला, आश्रव से रहित जो मुनि परिपूर्ण अनुपम और शुद्ध धर्म का कथन करता है वही आश्वास का द्वीप रूप है ॥२४॥ टीकार्थ--मन वचन और काय से जिसका आत्मा गुप्ति युक्त है जो सदा जितेन्द्रिय है, संसार के कारण आश्रव बारों को रोकनेवाला और माणातिपात आदि कर्मके आगमन रूप आस्रव से रहित है वह 'पडिपुष्ण-प्रतिपूर्णम्' से 'अणेलिसं-अनीशम्' भने ७५मा विनानु 'सुद्धं धम्मं अक्खाइ-शुद्धं धर्मम् पाख्याति' शुद्ध मनु ४थन ४३ छ. ॥२४॥ અન્વયાર્થ–જેઓ આત્માને ગોપન કરવાવાળા ઈન્દ્રિયોને સદા વશમાં રાખવાવાળા કર્મના સ્ત્રોત–આસ્રવ દ્વારને રોકવાવાળા-આશ્રવથી રહિત છે મુનિ પરિપૂર્ણ અનુપમ અને શુદ્ધ ધર્મનું કથન કરે છે. તેજ આશ્વાસના દ્વીપરૂપ છે. ૨૪ ટીકાથ–મન, વચન અને કાયાથી જેઓને આત્મા ગુપ્તિ વાળે છે, જે હમેશાં જીતેન્દ્રિય છે, સંસારના કારણ એવા આસવ દ્વારને રોકવાવાળા અને પ્રાણાતિપાત વિગેરે કર્મના આગમન રૂપ આસ્સવથી રહિત છે, તે સાધુ For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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