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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे दतिसरलं-सर्वेषां बोधोपकारकम् 'मग्ग' मार्गम्-तमेवंभूतं दर्शनचारित्रतपास्वरूपं 'पावित्ता' पाप्य-ध्या-संपारसागरान्तःपातिनो जीवा मुमुक्षवः संपाप्तमोक्षसामग्रीकाः 'ओहं' ओघम्-भवसमुद्रम् 'दुत्तरं दुस्तरमपि तरइ तरति-अतिदुस्तर-संसारसागरस्यापि पारं ग उति, यद्यपि संभारोत्तरणं न दुष्करम् अविकलकारणसद्भावे महतोऽपि कार्यस्य दर्शनात्, तथापि-तादृशसामग्रीपाप्तिरेव दुष्करा। उक्तश्च 'माणुस्सं खेत्तनाई कुलयारोग्ग माउयं बुद्धी । 'सवणोदग्गहसद्धा संजमो य लोयंमि दुल्लहाई ॥१॥ छाया-मानुष्यं क्षेत्रं जातिः कुलं रूपमारोग्यमायुर्बुद्धिः। श्रवणमवग्रहः श्रद्धा संयमश्च लोके दुर्लभानि ॥१॥ इति । न्सवाद का अवलम्बन करने के कारण अतिसरल है और सभी को बोध देकर उपकार करता है, जिस मार्ग को प्राप्त करके संसार के मोक्षाभिलाषी जीव दुष्प्राप्य ऐसे मोक्ष को प्राप्त करते है और अत्यन्त दुस्तर संसार सागर को पार करते हैं। ____ यद्यपि संसार को पार करना कठिन नहीं हैं, क्यों कि परिपूर्ण कारणकलाप मिलने पर महान कार्य भी होता देखा जता है, तथापि वैसी सामग्री की प्राप्ति हो जाना ही कठिन है। कहा भी है'माणुस्सं खेत्तजाई' इत्यादि।। 'मनुष्यत्व, आर्यक्षेत्र, उत्तम जाति (मातृपक्ष), उत्तम कुल (पितृपक्ष), रूप, आरोग्य, दीर्घायु, सद्बुद्धि, धर्मश्रवण, अवग्रहण (धर्मकाग्रहण करना) श्रद्धा और संयम, यह सब लोक में उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं।' બન કરવાના કારણે અત્યંત સરળ છે. અને સઘળાને બોધ આપીને ઉપકાર કરે છે, જે માર્ગનું અવલખન કરીને સંસારના મોક્ષની ઈચ્છાવાળા છે પ્રાપ્ય એવા મોક્ષને પ્રાપ્ત કરે છે, અને અત્યંત ન તરી શકાશ એવા સંસાર સાગરને પાર કહે છે? જોકે સંસારને પાર કરવું કઠણું નથી. કેમકે–પરિપૂર્ણ કારણ કલાપ (સાધન) મળવાથી મહાન કાર્ય પણ સિદ્ધ થતું જોવામાં આવે છે. પરંતુ तवा समिश्रीनी प्राप्ति की ते४ ४४७१ छ.-४युं ५ छे.-'माणुस्सं खेत जाई' .यह मनुष्य ५५, माय क्षेत्र, उत्तम गति, (भारी ५६) उत्तम गुण (पितु. ५१) ३५, माश्य, दीर्घायु, सर्दू मुद्धि, यम श्र११, सवड (धमन સવીકાર) શ્રદ્ધા, અને સંયમ આ બધા ઉત્તરોત્તર-પછિ પછિને મળવાવાળા -अप्राप्य छे. For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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