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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे ___ अन्वयार्थ:-(भिक्खू) भिक्षुः (गेहा उ निक्खम्म) गेहात - स्वगृहात्तु निष्क्रम्य-व्रज्य (निरावकंखी) निरवकांक्षी-जीवनेऽपि निरपेक्षः सन् (कायं विउसेज) कायं शरीरं व्युत्सृजेत्-शरीरनिष्पतिकर्मतया कायममत्वं त्यजेत् (णियाणछिन्ने) निदानछिन्नः-तपसः फलमकामयमानः (बलयाविमुक्के) दलयात्-संसारवलयात् फर्मवलयाद्वा विमुक्तः (नो जीवियं नो मरणाभिकखी चरेज्न) नो जीवितं नो मरणाभिकांक्षी-जीवनमरणविषयकाभिलापरहितः सन् संयमानुष्ठानं चरेत् , इति ॥२४॥ 'निक्खम्भ गेहा उ' इत्यादि। शब्दार्थ--'गेहा उ निक्खम्म-गेहातु निष्क्रम्य' साधु घर से निकलकर अर्थात् प्रव्रज्या धारण करके 'निरावकंखी-निरवकांक्षी' अपने जीवन में निरपेक्ष होजाय 'कायं विउसेज्ज-कार्य व्युटहजेत्' तथा शरीरका व्युत्सर्गकरे 'जियाणछिन्ने-निदानछिन्नः' और वह अपने किये हुए तप के फलकी कामना न करे 'वलयाविमुक्के-घलया. द्विमुक्तः' तथा संसार से मुक्त होकर 'नो जीवियं णो मरणाभिकखी चरेज्ज-नो जीवितं नो मरणावकांक्षी चरेत्' वह जीवन और मरणकी इच्छा न रखता हुआ संयमानुष्ठान में प्रव्रत्त रहे ॥२४॥ अन्वयार्थ--अपने गृह से निष्क्रमण करके अर्थात् दीक्षित होकर जीवन के प्रति भी निष्काम रहे, काय का उत्सर्ग करके अर्थात् शरीर ममता, संस्कार एवं चिकित्सा न करता हुआ, तप संयम के फल की इच्छा न करता हुआ निदानरहित संसार के या कर्म के चक्र से विमु. 'निखम्म गेहाउ' त्या शाय-गेहा उ निक्खम्म-गेहात्तु निष्क्रम्य' साधुसे ३२थी नीजी अर्थात् अनन्यानो स्वी२ ४शने 'निरावकंत्री-निरवकांक्षी पताना नी अपेक्षा २हित ५.ll rj D . 'काय' विउज्ज-काय व्युत्सृजेत्' &! Nरने। १०युत्सग त्या ७२. 'णियाणछिन्ने-निदानछिन्नतम तेम्मा यात सातपना नविन रे 'वलयावि मुक्के-बलयाद्विमुक्तः' तथा साथी । अनीने 'नो जीवियं णो मरणामिकंखी साज-नो जीवितं नो मराझो चरे' ते જીવન મરણની ઈચછા રાખ્યા વિના રાંધના અનુષ્ઠાનમાં જ પ્રવૃત્ત રહેવું ૨૪ અન્વયાર્થ–પિતાના ઘેરથી નીકળીને અર્થાત્ દીક્ષિત થઈને પિતાના જીવન પ્રત્યે પણ નિષ્કામ રહેવું. શરીરને ઉત્સર્ગ કરીને અર્થાત્ શરીરની મમતા. શારીરિક સંસ્કાર તથા ચિકિત્સા કર્યા વિના અને તપ કર્યા વિના નિદાન For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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