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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे किश्च-'इस्थीसु' स्त्रीषु सत्तेय' सक्तश्च 'पुढो' पृथक् पृथक् तदीयहासावलोकनादौ 'बाले' वाल:-सदसद्विवेकरहितो भवतीति, वनितामुखबिलोकनं न द्रव्यमन्तरेण संभवतीति एतदर्थम् 'परिग्गह' परिग्रहं परिग्रहं चापि पकुव्वमाणे' प्रकुर्वाण:-पापं कर्मसंचिनोति ॥८॥ मूलम्-वैराणुगिद्धे णिचयं करेइ, इओ चुए स इदमटदुग्गं । तम्हा उमेहावी समीक्ख धम्मं, चरे मुंणी सैव उ विस्यमुक्क।९। छाया-वैरानुगृद्धो निचयं करोति, इतच्युतः स इदमर्थदुर्गम् । तस्मात्तु मेधावी समीक्ष्य धर्म, चरेन्मुनिः सर्वतो विषमुक्तः ॥९॥ पार्श्वस्थ एवं कुशीलों के धर्मका सेवन करता है। सम्यक अनुष्ठान से हीन होने से संसार सागर के कीचड़ में फंस कर दुःखी होता है। इसके अतिरिक्त जो स्त्रीके हास्य, अवलोकन आदि में आसक्त होता है, वह सत् असत् के विवेक से विकल अज्ञानी होता है स्त्रिका सेवन या मुखावलोकन अर्थ के विना नहीं होता, इस कारण जो परिग्रह का संचय करता है, वह वस्तुतः पापकर्म का संचय करता है। ___वेराणु गिद्धे' इत्यादि। शब्दार्थ---'वेराणुगिद्धे- वैरानुगृद्धः' जो पुरुष प्राणियों के साथ बैर करता है णिचयं करेंह-निचयं करोति' वह पापकर्म की वृद्धि करता है 'इओ चुए स इहमट्टदुग्गं-इतश्च्यु तः स इहमर्थदुर्गम्' वह मरकर नरक आदि दुःखदायो स्थानों में जन्म लेता है 'तम्हा उ मेहावी मुणीછે. તે પાર્શ્વ રથ અને કુશીના ધર્મનું સેવન કરે છે, સમ્યક અનુષ્ઠાનથી રહિત હોવાથી સંસાર રૂપી સાગરના કાદવમાં ફસાઈ જઈને દુઃખી બને છે. આ સિવાય જે સ્ત્રીના હસ્ય, અવલોકન વિગેરે ચેષ્ટાઓમાં આસક્ત થાય છે, તે સત્ અસત્ વિગેરેના વિવેકથી રહિત અજ્ઞાની હોય છે. સ્ત્રીનું સેવન અથવા મુખનું અવલેહન અર્થ-ધન વિના થઈ શકતું નથી. તે કારણે જે પરિગ્રહને સંચય કરે છે, તે ખરી રીતે પાપકર્મને જ સંચય કરી રહેલ છે. ૮ __ 'वेराणु गिद्धे' त्याह Avat- 'वेराणुगिद्धे-वैरानुगृद्ध.'२ ५३५ प्रायिनी साथै ३२ ४३ है, णिचयं करे इ-निचयं करोति' ते ५५४मनी पधारे। १४ ४३ है. 'इओ चुए स इहमदृदुग्गम्-इतच्युतः स इहमर्थदुर्गम्' ते भरीने १२४ विगैरे ५ मा५ For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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