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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे स्वरूप समाधिमुपदिष्टवन्त स्तीर्थकरादयः । अतो विचारवता यतमानेन पुरुषेण जीवानां विराधनाकारि कर्म परित्यज्य प्रवज्यामादाय ज्ञानादिरूपे मोक्षमार्गे यस्नवता भाव्यमिति ॥६॥ मूलम्-सव्वं जगंतू समयाणुपेही, पियमप्पियं कस्सइ णो करेजा। उहाय दीणो य पुंणो विसन्नो, संपूर्यणं वे सिलीयकामी ॥७॥ छाया-सर्व जगत्तु समतानुप्रेक्षी, पियमपियं कस्यचिन्न कुर्यात् । . उत्थाय दीनश्च पुनर्विषण्णः, संपूजनं चैव श्लोककामी ॥७॥ करने के लिए ज्ञानादिमय समाधि का निरूपण किया है। अतएव विचारवान् और यतना परायण पुरुष को जीव विराधना करने वाले कर्म का परित्याग कर के, दीक्षा अंगीकार करके, ज्ञानादि रूप मोक्षमार्ग में प्रयत्न शील होना चाहिए ॥६॥ 'सव्वं जगंतु समयाणुपेही' इत्यादि । शब्दार्थ-सव्वं जगंतू-सर्व जगत्' साधु समस्त जगत्को 'समयाणु. पेही-समतानुप्रेक्षी' समभाव से देखे 'कस्सइ-कस्यचित् किसी का भी 'पियमप्पियं प्रियम प्रियम्' प्रिय और अप्रिय 'णो करेज्जा-नो कुर्यात्' न करे 'उट्ठाय-उत्थाय' कोई पुरुष प्रवज्याका स्वीकार करके 'य-च' और 'दीणो य पुणो विसण्णो-दीनश्च पुनर्विषण्णः' कोई पुरुष प्रव्रज्या लेकर परीषह और उपमर्गी की बाधा होने पर दीन हो जाते हैं और જ્ઞાનાદિ ય સમાધિનું નિરૂપણ કરેલ છે. તેથી જ વિચારવાનું અને યતના પરાયણુ પુરૂષે જીવ વિરાધના (હિંસા) કરવાવાળા કર્મનો ત્યાગ કરીને દીક્ષાને સ્વીકાર કરીને જ્ઞાનાદિ રૂપ મેક્ષ માર્ગમાં પ્રવૃત્તિ યુક્ત થવું જોઈએ. દા 'सव्वं जगं तु समयाणुपेही' त्याह Av —'सव्वं जगंतू-सर्व जगत्' साधु सपूत् ने 'समयाणुपेहीसमतानुप्रेक्षी' समझा था ये 'कस्सइ-कस्यचित्' धनु' ५ 'पियमपिय -प्रियमप्रियम्' प्रिय १५॥ प्रिय ‘णो करेज्जा-नो कुर्यातू' न ४३ ‘उट्ठायउत्थाय' ५ ५३५ प्रनयानी स्वी२:२ 'य-च' अ 'दीणो य पुणो विसणो-दीनश्च पुनर्विषण्णः' परीष भने ५Anी पी. थाय त्यारे तीन For Private And Personal Use Only
SR No.020780
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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