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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ.७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ५६५ मातापितरौ परित्यज्य श्रमणव्रतं स्वीकृत्यापि अग्निकार्य प्रज्यालयति, तथा स्वात्ममुखेच्छया पाणिनमु पहन्ति सः कुशीलधर्मा 'अहं' अथ एवम् 'आहे' बाहुः-तीर्थकरणगधारादयः ॥५॥ - अग्निकायसमारंभे पाणिनामतिपातः कथं भवतीति सूत्रकारः प्रदर्शयति'उज्जालमो पाण' इत्यादि। मूलम्-उज्जालओ पाण निवाय एज्जा, निव्वावओ अगणि निवायवेज्जा। तम्हा उ मेहावि संमिक्खधम्म ण पंडिए अगणि समारभिज्जा ॥६॥ छाया--उज्जालका प्राणान् निगातयेत् निर्वापकोऽग्नि निपातयेत् । तस्मात्तु मेधावी समीक्ष्य धर्म न पण्डितोग्नि समारभेत ॥६॥ तात्पर्य यह है कि जो लोग मातापिता आदि परिवार का परित्याग करके और श्रमण का व्रत अंगीकार करके भी अग्नि का आरंभ करते हैं, तथा अपने सुख की इच्छा से प्राणियों का घात करते हैं, वे कुशीलधर्मी कहलाते हैं। तीर्थकरो एवं गणधरोंने उन्हें कुशीलधर्मी कहा है ॥५॥ अग्निकाय के प्रारंभ में प्राणियों का घात किस प्रकार होता है, यह सूत्रकार दिखलाते है-'उजालमओ पाण' इत्यादि। शब्दार्थ-'उज्जालओ-उज्ज्वालकः' अग्नि जलाने वाला पुरुष 'पाण निवायएज्जा-प्राणान् निपातयेत्' प्राणियों का घात करता है, तथा 'निव्वाव मो-निर्वापक:' अग्नि को बुझाने वाला पुरुष भी 'अगणि તાત્પર્ય એ છે કે જેમાં માતાપિતા આદિ પરિવારને ત્યાગ કરીને શ્રમણવ્રત અંગીકાર કરવા છતાં પણ અગ્નિને આરંભ કરે છે, તથા પિતાના સુખને માટે પ્રાણીઓને ઘાત કરે છે, તેમને કુશીલધમ કહેવાય છે. ગણધરોએ એવાં પાખંડી સાધુઓને કુશીલધમી કહ્યા છેગાથા પ ર અગ્નિકાયના આરંભમાં પ્રાણીઓને ઘાત કેવી રીતે થાય છે, તે સૂત્ર४॥२ वे समा -'उज्जालओ पाण' त्या: शहाथ-'उज्जालो-उज्ज्वालकः' ममि स वाणे ५३५ 'पाणनिवाय. एज्जा-प्राणान् निपातयेत्' प्राणियोनी बात रे छ, तथा निन्याओ-निर्वापक:' For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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