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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४८९ अन्वयार्थ :-(से) स मेरुः (गभे पुष्टे) नमसि स्पृष्टः-नभसि-आकाशे लग्नो व्याप्तः (भूमिवहिए) भूम्यवस्थितः-भूमिमध्ये स्थितः (चिट्टइ) तिष्ठति-स्थितो विद्यते, (ज) यं-मेरुम् (मूरिया) सूर्या:-आदित्या ज्योतिष्काः (अणुपरिवयंति) अनुपरिवर्तयन्ति-परिभ्रमन्ति, स मेरुः (हेमचन्ने) हेमवर्णः-वर्णेन सुवर्णसदृशः, (बहुनंदणे य) बहुनन्दनश्च-अनेकानन्दवनयुक्तः (जंसि) यस्मिन् मेरौ (महिंदा) महेन्द्रा देवाः (रई वेदयंति) रतिमानन्दं वेदयन्ति-अनुभवन्तीति ॥११॥ __टीका-(से) स मेरुपर्वः (णभे) ममसि-आकाशे (पुढे) स्पृष्टः-नभास्पर्शी औन्नत्यात् नमो गछतीतिवत् नभो व्याप्य तिष्ठति । तथा-(यूमिहिप) भूम्यवस्थितः-भूमि चाऽवगाह्य स्थितः, ऊर्धाऽस्तिर्यलोकसंस्पर्शी सुमेरुः । (ज) स्थित रहता है जं-यं' जो मेरु को प्रिया-स्तूः ' आदित्य 'अणु: परिवयंति-अनुपरिवर्तयन्ति' परिक्रमा करते रहते हैं 'हेमबन्ने-हेम वर्णः' यह सुवर्ण के समान वर्णशाला 'बहुनंदने य-बहुलन्दनश्च' अनेक नन्दन वनों से युक्त है 'जसि-यस्मिन् जिप्त मेरु पर 'महिंदा-महेन्द्राः' महेन्द्रलोक 'रति-वेदयंति-रतिं वेदयन्ति' आनन्द का अनुभव करते हैं ॥११॥ - अन्वयार्थ-वह मेरु पर्वत आकाश को स्पर्श करता है और भूमि के भीतर रहा हुआ है । सूर्य आदि ज्योतिष्क उसकी परिक्रमा करते रहते हैं। वह स्वर्णवर्णवाला है, अनेक उद्यानों से युक्त है और महेन्द्र देव वहाँ रतिका अनुभव करते हैं ॥११॥ टीकार्थ-सुमेरु पर्वत आकाशस्पर्शी है-ऊंचाई होने के करण आकाश को व्याप्त करके स्थित है और पृथ्वी की अवगाहना करके भी भे३२ 'सूरिया-सूर्याः' सूर्या 'अणुपरिवयंति-अनुपरिवर्तयन्ति' प्रहसिया रता २७ छ. 'हेमवण्णे-हेमवर्णः' ते सोना सरीमाप पाये'बहुन दने य-बहुनन्दनश्च' भने ननमायायुत छ. 'जति-यस्मिन्' २ ३ ५२' 'महिंदा-महेन्द्राः' भडेन्द्र । रतिवेदयंति'-रतिवेदयन्ति' मानानुभव ४२॥ २९ छ.।११।। સૂત્રાર્થ–તે મેરુ પર્વત આકાશને સ્પશીને રહેલ છે. અને ભૂમિના અંદરના ભાગમાં પણ ફેલાયેલ છે. સૂર્ય આદિ જાતિષિક દેવે તેની પ્રદક્ષિણ કરે છે. તે સુવર્ણન જેવા વર્ણવાળે, અનેક ઉદ્યાનેથી યુક્ત અને મહેન્દ્રાદિ દેવેની રતિક્રીડાનું સ્થાન છે. તે ૧૧ છે ટીકાઈ–મેરુ પર્વત આકાશસ્પર્શ છે. ઘણે ઊંચો હેવાને કારણે તે આકાશ સુધી વ્યાપેલે છે અને તેને ૧૦૦૦ એક હજાર યોજન પ્રમાણ ભાગ स० ६२ For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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