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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ५ उ.१ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३३५ __ अन्वयार्थः-(इइ) इहलोके (रुदा) रौद्राः पाणिनां घातकाः (जे के बाला) ये केचन बाला अज्ञानिनः (जीवियो) जीवितार्थिन:-असंयमजीवितार्थिनः (पाबाई कम्माई करंति) पापानि प्राणातिपातादीनि कर्माणि कुर्वन्ति (ते) ते बालाः (घोररूवे) घोररूपेऽत्यन्तभयानके (तमिसंधयारे) तमिसान्धकारे-बहुलतमोन्धकारे (तिव्वामित वे) तीव्रामितापे-अत्यन्तताफ्युक्ते (नरए) नरके-एता. रशविशेषणयुक्त नरके (पडंति) पतन्ति-गच्छन्तीति ॥३॥ टीका-'ह' इडास्मिन् संसारे 'रुद्दा' रौद्रा:-माणिनां घातका: 'जे केह' ये केचन जीवाः, महारम्भमहापरिग्रहपश्चेन्द्रियवधमांसभक्षणादिकसावधकर्माऽनुष्ठाने परायणास्ते 'बाला' बालाः-सदसद्विवेकविकलाः 'जीवियट्ठी' जीवि. पापानि कर्माणि कुर्वन्ति' हिमादि पापकर्म करते हैं 'ते-ते' वे घोर. रूवे-घोररूपे' अत्यन्त भयजनक तमिसंधयारे-तमिस्रांधकारे' महान् अन्धकार से युक्त 'तिवाभितावे-तीवाभिता' अत्यन्त तापयुक्त 'नरए-नरके' नरक में 'पडति-पतन्ति' पड़ते हैं ॥३॥ ____ अन्वयार्थ--इस लके में जो अज्ञानी प्राणियों के घातक हैं, असंयममय जीवन के अभिलाषी हैं और जो प्राणातिपात आदि पापकर्म. करते हैं, वे अज्ञानी जीव अत्यन्त घोर, संघन अन्धकार से व्याप्त, अत्यन्त संताप से युक्त नरक में पड़ते हैं ॥३॥ टीकार्थ-इस संसार में जो अज्ञानी जीव प्रणियों का घात करने वाले अर्थात् महारम्भ, महापरिग्रह, पञ्चेन्द्रिय का वध करने में एवं मांस भक्षण आदि घोर पापों में परायण होते हैं, सत् असत् के विवेक कुर्वन्ति' शि३ पा५४५' ३२ छ. 'ते-ते' ती 'घोररूवे-घोररूपे अत्यत मह तमिसंधयारे-तमिस्रांधकारे' महान् । २५१२थी युति 'तिव्वामितावे-तीवामित पे' मत्यत ताथी व्यात सेवा 'नरप-नरके' न२० मां पति-पतन्ति' ५3 छे. ॥३॥ સૂત્રાર્થ–આ લે માં જે અજ્ઞાની છે પ્રાણીઓના ઘાતક બને છે, અસંયમમય જીવનની અભિલાષાવાળા છે. પ્રાણાતિપાત આદિ પાપકર્મો કરનારા છે, તે અજ્ઞાની છ અત્યત ઘોર, સઘન અંધકારથી વ્યાપ્ત, અત્યન્ત સંતાપથી યુક્ત નરકમાં પડે છે. આવા ટીકાર્થ-આ સંસારના જે અજ્ઞાની છે પ્રાણીઓને વધ કરનારા હોય છે. એટલે કે મહારભ, મહાપરિગ્રહ, પંચેન્દ્રિયને વધુ અને માંસાહર આદિ ઘેર પાપકર્મમાં આસક્ત હોય છે, જેઓ સત્ અસના વિવે For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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