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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समर्थafari टीका प्र. शु. अ. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि० ३०९ टीका - ' जाए फले समुप्पन्ने' जाते फळे समुरपन्ने, जायते इति जातः पुत्रः स एव फलं दारपरिग्रहस्य गृहस्थानाम् । दारपरिग्रहस्य यदुच्यते फलं कामोपभोगः, स तु गौणः । मुख्यं फलं तु पुत्र एव । अव्यक्तभाषिणो बालात् यत् सुखं नराणां मत्रति तादृश सुखाग्रेऽन्यत् सर्वमकिचित्करं भवति । तदुक्तम् 'यत्तच्छप निकेत्युक्तं, बाछेनाऽव्यक्तभाषिणा । हिरवा सांख्यं च योगं च तन्मे मनसि वर्त्तते ॥ १॥ ' पुत्रसुखं दरिद्रधनिनोः सममेव भवति इदं सुखं बाह्यसामय्यनपेक्षमेव भवतीति । तथा अन्वयार्थ -- पुत्र होने के पश्चात् जो होता है उसे दिखलाते हैं - वह स्त्री कभी कहती है इसे लो संगालो, कभी कहती है इसे छोड़ो। कोई कोई पुत्रपोषी लोग तो ऊंट की तरह भार वहन करते हैं || १६ || टीकार्थ-- पुत्र का दूसरा नाम 'जात' है। गृहस्थों के लिए विवाह का फल पुत्रप्राप्ति है | विवाह का फल कामभोग जो कहा जाता है, वह फल गौण है, प्रधान फल पुत्रप्राप्ति ही है। तुतलाते हुए बालक की बोली सुनकर मनुष्यों को जिस सुख की प्राप्ति होती है, उसके सामने सभी कुछ तुच्छ है। किसी पुत्रपोषीने कहा है- 'यसच्छ्पनिकेत्युक्तं ' इत्यादि । तुतलाते हुए बालक ने 'शपनिका' ऐसा कहा । यह सुनकर सांख्य और योगदर्शन की गंभीर शब्दावली भूलकर एकमात्र वही शब्द मेरे मन में रह गया है ॥१॥ पुत्र सुख ऐसा सुख है जो दरिद्र और धनवान् दोनों को ही समान रूप से प्राप्त होता है । इसे प्राप्त करने के लिए किसी अन्य बाह्य सामग्री ટીકા-પુત્રને ‘જાત' પણ કહે છે. ગૃહસ્થે પુત્રપ્રાપ્તિને લગ્નના ફળરૂપ માને छे. सग्ननु इज में अमलोग मानवामां आवे छे. ते तो गोइल छे, प्रधानફળ તેા પુત્રપ્રાપ્તિ જ છે. ખાળકની તડી વાણી સાંભળતા મનુષ્યને જે સુખની પ્રાપ્તિ થાય છે, તે સુખ આગળ જગતનાં સઘળાં સુખ શ્રીકાં લાગે b. saj ug —'ass¶langa' kule — બાળકે તેાતડી ખેલીમાં ‘શનિકા' શબ્દનું ઉચ્ચારણ કર્યુ, તે સાંભળીને ચગદર્શન અને સાંઢનની ગંભીર શબ્દાવલીને હુ ભૂલી ગયા. માત્ર ‘શપતિકા' શબ્દ જ માગ મનમાં ગુંજી રહ્યો. ૫૧ પુત્રસુખ જ એવુ સુખ છે કે જેની રિદ્ર અને ધનિક બન્નેને સમાન પ્રાપ્તિ થાય છે. તેને પ્રાપ્ત કરવાને માટે કોઈ અન્ય માહ્ય સામગ્રીની For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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