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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सैमयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २२९ सम्यगमनजिता तत्र अपायसंभवात् एकाकी च्यादिसंकुलितगृहस्थगृहं गत्वा धर्म नोपदिशेत् । यदि कदाचिदुपदिशेत्तदा तद्गृहमगत्वैव उपाश्रये एव पुरुषसाक्षिक वैराग्यमधानकं धर्ममुपदिशेत् इति ॥११॥ विषमोऽप्यर्थः-अन्वयव्यतिरेकाभ्यां पुनः प्रतिपादितो बोधाय सुलभो भवतीति-अभिप्रायवान सूत्रकार आह-'जे एयं उंछ' इत्यादि। मूलम्-जे एयं उछ अणुगिद्धा अनयरा से हंति कुसीलाणं। सुतवस्सिएवि से भिक्खू 'नो विहरे संह णमित्थीसु॥१२॥ छाया--य एतदुन्छमनुगृद्धा अन्यतरे ते भवन्ति कुशीलानाम् । सुतपस्विकोऽपि स भिक्षुः न विहरेत् साध खलु स्त्रीभिः ॥१२॥ नहीं करना चाहिए । कदाचित् उपदेश दे तो उसके घर न जाकर ही अन्य पुरुष की विद्यमानता में उपाश्रय में ही वैराग्य प्रधान धर्म का उपदेश करे ॥११॥ __ कोई विषय दुर्गम हो तो भी अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा अर्थात् विधि रूप से और निषेध रूप से प्रतिपादन करने से सुगम हो जाता है। इस अभिप्राय से सूत्रकार कहते हैं---'जे एवं उंछ' इत्यादि । __ शब्दार्थ--'जे-ये' जो पुरुष एयं-एतत्' इसी स्त्री संसर्गरूपी 'उछंउच्छम्' त्याज्य-नोंदनीय कर्म में 'अणुगिद्धा-अनुगृद्धा' आसक्त है 'सेते' वे पुरुष कुसीलाणं-कुशीलानाम्' पार्श्वस्थादिकों में से 'अन्नयरा-अन्यतरे' कोई एक हैं अत: 'से-स:' वह साधु 'सुतवस्सिए वि-सुतपः એકાન્તમાં ઉપદેશ આપવો જોઈએ નહીં. તેણે ઉપાશ્રયમાં અન્ય પુરુષની સમક્ષ જ સ્ત્રિઓને વૈરાગ્યપ્રધાન ધર્મને ઉપદેશ આપ જોઈએ ૧૧ કઈ વિષયનું પ્રતિપાદન કરવાનું કાર્ય દુષ્કર હેય, તે અન્વય અને વ્યતિરેક દ્વારા એટલે કે વિધિ રૂપે અને નિષેધ રૂપે તેનું પ્રતિપાદન કરવાથી તે વિષય સુગમ થઈ જાય છે. તેથી જ સૂત્રકાર હવે આ પદ્ધતિને આશ્રય BR ४ छ है-'जे एयं उंछे' त्याह-- हा---'जे-ये' रे ५३५ 'एयं-एतत्' । श्री ससपी 'उछसम्' नी-हनीय भा 'अणुगिद्धा-अणुगृद्धा:' मासत. 'से-ते. से ५ो 'कुसीलाण-कशीलानाम्' पावस्थ विरेभाथी 'अन्नयरा-अन्यतरा हो से छे. तया 'से-मः' ते साधु 'सुतवस्सिए वि-सुतस्विकोऽपपि' उत्तम तपस्वी For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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