SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् अपि च मूलम् -सीहं जहा व कुणिमेणं निव्भयमेगेचरंतिपासणं । एवित्थियाड बंधति संबुडं एगतियमणगारं ॥ ८॥ छाया - सिंहं यत्रा मांसेन निर्भयमेकवर पाशेन । एवं सियो बध्नन्ति संवृतमेकतयमनगरम् ॥ ८॥ अन्वयार्थः - - (जा) यथा (नियं) निर्भयं गतभयं (एचरंति) एकचरम् (सी) सिंहम् (कुणिमेणं) मसिन-पासं दच्या (पासेणं) पाशेन गलत्रादिना (बंधंति) वनम्ति धिकाः ( एवं) एवं थैत्र (इत्थियाउ) स्त्रियः (संबुर्ड) संहृतं = आज्ञा के अनुसार अच्छा या बुरा कार्य करता है, उसी प्रकार स्त्रियां साधु को अपने अधीन हुआ जानकर उसे कुकर्म करने में प्रवृत्त करती हैं ॥ ७॥ शब्दार्थ - 'जहा पथा' जैसे निब्भयं निर्भयम्' भयरहित 'एचरंति - एकचरम्' अकेला ही विवरनेवाले 'सीहं सिंहम्' सिंहको 'कुणिमेणं - मांसेन' मांस देकर ' पाले-पाशेन' पाशके द्वारा ' बंधंति वनन्ति' वधकजन पकड लेते है- 'एवं - एवम्' उसी प्रकार 'इस्थियाउस्त्रियः' स्त्रियां 'संडे 'संवृतम्' मन वचन और काय से गुप्त ऐसे और 'एगतयं - एक तिकं' एकाकी 'अणगारं अनगारम्' साधुको 'बंधंतिबध्नन्ति' अपने हावभावरूपी पाशसे बांध लेती हैं ॥८॥ २१९ अन्वयार्थ जैसे निर्भय और एकाकी विचरण करने वाले सिंह को मांस से लुभाकर शिकारी पाश में बांध लेते हैं उसी प्रकार स्त्रियां संवरयुक्त अर्थात् मन वचन एवं क्राय से गुप्त, एकाकी अनगार को फँसा लेती हैं ॥ ८ ॥ માલિક સારું અથવા નરસુ‘કામ કરાવી શકે છે, એજ પ્રમાણે સ્ત્રી સાધુને પેાતાને આધીત થયેલા જાગ઼ીને તેને કુકમ કરવામાં પ્રવૃત્ત કરે છે છા शष्टार्थ---'जहा-यथा' प्रेम 'निभयं निर्मयम्' लयथी रहित भने 'एम चरंति - एकचरम्' सेसी वियरावाणा 'सीहं सिंहम्' सिंहने 'कुणिमेण - मांसेन' मांस याने 'प से गं - पाशेन' पाश द्वारा 'बंधति बध्नन्ति' शिकारीये। मुडी से छे, 'एवं - एवम् ४ शेते 'इत्थियाउ- स्त्रियः' स्त्रियो 'संबुडं - संवृत्तम्' भन वयन भने डायश्री गुप्त सेवा भने ' एगतयं एगतिक' मेला सेवा 'अणगारं - अनगारम्' साधुने 'बंधति-मव्नन्ति' पोताना हावभाव ३५ी पाशथी આંધી લે છે. ૫૮ાાં For Private And Personal Use Only સૂત્રા—જેવી રીતે નિર્ભય અને એકલા વિચરતા સિહુને માંસ વડે લલચાવીને શિકારી પાશમાં બાંધી લે છે, એજ પ્રમાણે સ્રિએ પણ સ્વરયુક્ત-મન, વચન અને કાયગુપ્તિથી યુક્ત એકાકી સાધુને ફસાવી લે છે.
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy