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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २०३ छाया-मूक्ष्मेण तं परिक्रम्य छन्नपदेन स्त्रियो मन्दाः । आयमपि ता जानंति यथा श्लिष्यन्ति भिक्षव एके ॥२॥ अन्वयार्थ:--(मंदा इत्यिो ) मन्दास्त्रिया=कामोद्रेकविधायितया विवेकवि. कलाः (तं परिक्कम्म) तं साधु परिक्रम्य तत् समीयमागत्य (छन्नपएण) छन्नपदेन कपटजालेन तं भ्रंशयन्ति (ता) ता:-स्त्रियः (उन्नायपि) उपायमपि (जाणंसु) जानंति (जहा एगे भिक्खुणो) यथा एके भिक्षा-साधवः (लिस्संति) श्लिष्यन्ति तथाविधकर्मोदयात् तासु संगमुपयान्तीति ॥२॥ ___ इस प्रकार के मनोभावों में स्थित साधु के समक्ष विवेकहीन स्त्री जनों के सम्पर्क से जो परिस्थिति उत्पन्न होती है, उसे सूत्रकार दिख. लाते हैं-'सुहुमेणं तं' इत्यादि । __ शब्दार्थ-'मंदा इस्थि मो-मन्दा स्त्रियः' अविवेकिनी स्त्रियां 'मुष्टुमेणं सूक्ष्मेण' कपटसे 'तं परिकम्म-तं परिक्रम्ब' साधुके पास आकर 'छन्नपएण-छन्नपदेन' कपटजालसे अथवा गूढार्थ शब्द से भ्रष्ट करने का प्रयत्न करती है 'ता-ताः' वे स्त्रियाँ 'उन्वायंपि-उपायमपि' उपाय भी जाणति-जानन्ति' जानती है 'जहा एगे भिक्खुणो-यथा एके भिक्षषा' जिससे कोई साधु 'लिस्संति-श्लिष्यन्ति' उनके साथ संग करते हैं ॥२॥ ____ अन्वयार्थ--कामोद्रेक उत्पन्न करने के कारण विवेकहीन स्त्रियाँ उस साधु के समीप आकर और कपट का जाल बिछाकर उसे भ्रष्ट करती है । वे उपाय को भी जानती हैं और समझती हैं कि कोई कोई આ પ્રકારના સંક૯પપૂર્વક સાધુપર્યાય સ્વીકારનાર સાધુની સાથે વિવેક હીન સ્ત્રીઓને સંપર્ક થવાથી જે પરિસ્થિતિ પેદા થાય છે, તેનું સૂત્રકાર वे नि३५९५ ४२ छ.-'सुटुमेणं तं' त्या शा-'मंदा इथिओ-गन्दा स्त्रियः' अविवाणी स्त्रिया 'सुहुमेणं-सूक्ष्मेण' ४५४थी 'तं परिका-तं परिक्रम्य' साधुनी पासे मापीने 'छन्नपएण- छम्नपदेन' કપટ જાળથી અથવા ગૂઢ અર્થવાળા શબ્દથી સાધુને ભ્રષ્ટ કરવાનો પ્રયત્ન કરે छे. 'ता-ताः' ते लियो ‘उन्यायषि-उपायमपि' पाय ५५ 'जाणंति-जानन्ति' नये छ. 'जहा एगे भिक्खुगो-यथा एके भिक्षा माथी / साधु 'लिस्संति-श्लिष्यन्ति' तनी साथै स ४0 से . ॥२॥ સૂત્રાર્થ_વિવેકહીને સ્ત્રીઓ તે સાધુની પાસે આવીને, કપટજાળ બિછાવીને કામે ઉત્પન્ન કરનારી પિતાની ચેષ્ટાઓ દ્વારા તે સાધુને સંયમ ભ્રષ્ટ કરે છે. તેઓ તેને ફસાવવાની યુક્તિઓ જાણતી હોય છે અને સમજતી For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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