SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ ३.३ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १८३ अन्वयार्थ:--(जहा) यथा (इह) इहास्मिन् लोके (वेयरणी नई) वैतरणी नदी (दुरुत्तरा समता) दुस्तरा संमता दुःखेन तर्तुं योग्या (एवं) एवम नेन प्रकारेण (लोगंसि) लोके (नारीभो) नार्यः स्त्रियः (अमहमया) अमतिमता-विवेकशून्यपुरुषेण (दुरुत्तरा) दुस्तरा भवतीति ॥१६॥ टीका--'जहा' यथा 'वेयरणी' वैतरणी 'नई' नदी 'दुत्तरा' दुस्तरा इहलोके संमता, अत्यन्तवेगवाहितया विषमतटबत्तया च वैतरणी नदी अनिष्णातैस्त मशक्या भवति । नदीसंतरणे कृतमतयः एव तां तरन्ति । 'एवं' एवं प्रकारेण __ स्त्री परीषह को सहन करना अत्यन्त कठिन है, सूत्रकार यह दिखलाते हुए कहते हैं--'जहा नई' इत्यादि। शब्दार्थ-'जहा-यथा' जैसे 'इह-इह' इस लोकमें 'वेयरणी नईवैतरणीनदी' वैतरणी नदी 'दुरुत्तरा संमता-दुस्तरा संमता' अनिष्णात जनोंसे दुस्तरमानी गई है 'एवं-एवम्' इसी प्रकार 'लोगसि-लोके' इस लोकमें 'नारीओ-नार्यः' स्त्रियां 'अमई मया-अमति मता' विवेक शून्य पुरुष से 'दुरुत्तरा-दुस्तरा' दुस्तर मानी गई है ॥१६॥ ___ अन्वयार्थ--जैसे लोक में वैतरणी नदी को पार करना कठिन है, उसी प्रकार विवेकहीनजनके लिए स्त्रियां दुस्तर हैं ॥१६॥ टीकार्थ-वैतरणी नदी को पार करना कठिन माना गया है। यह तीव्र वेगके साथ बहती है और उसके तट बडे विकट होते हैं। अतएव अनिपुणपुरुष उसे तिर नहीं सकते । उसे वही लोग पारकर હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે સ્ત્રી પરીષહને સહન કરે ઘણે भु छे-'जहा नई' छत्याह शहाथ-'जहा-यथा' २वी शते 'इह-इह' Amati वेयरणीनई -वैतरणीनदी' वैत२६ नही 'दुरुत्तरा समता-दुस्तरा संमता' मनात भासाथी हुस्तरभनाये। छ. 'एवं-एवम्' मारे 'लोगसि-लोके' मा 'नारीओ-नार्यः' श्री. 'अमईमया-अमतिमता' विवे शून्य ५३५थी 'दुरुत्तरा-दुस्तरा' स्तर માનવામાં આવેલ છે ૫૧દા સૂત્રાર્થ–જેવી રીતે લેકમાં વૈતરણી નદીને પાર કરવાનું કાર્ય અતિ કઠણ ગણાય છે, એ જ પ્રમાણે સ્ત્રી પરીષહને જીતવાનું કાર્ય વિવેકહીન પુરુષને માટે हु०७२ गाय है. ॥१६॥ ટકાઈ–વૈતરણ નદીને પાર કરવી તે ઘણું કઠણ ગણાય છે. તે તીવ્ર વેગે વહે છે અને તેના તટ ઘણા વિકટ છે. તેથી અનિપુણ પુરુષો તેને તરી શકતા નથી. તેને તે લેકે જ પાર કરી શકે છે કે જેઓ તેને પાર કરવાનો For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy