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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir __ यार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १६९ अध्यार्थः-(जहा) यथा (मंशदए नाम) मन्धादनो नाम-मेषः (थिमिय) स्तिमितमनाले यमानमेव (दगं) उदकम् (भुंनइ) मुंक्ते पिबति तत्रान्येषां जीवानामुपमर्दनाभावान्न दोपः (एवं) एवं तथैव (विनवणिस्थी मु) विज्ञापनीस्त्रीषु (तत्थ) तत्र-ताशसमागमे (दोसो को सिया) दोषः कुतः स्यात् नैव कोऽपि दोष इति ॥११॥ टीका-- स्यादपि मेथुने दोषो यदि कश्चित् तत्र पीडादिकमुत्पद्येत, न तु तथा प्रकृतेऽस्तीति दृष्टान्तद्वारा पुनदर्शयति-'जहा' यथा-'मंधादणे नाम' पीता है उसमें अन्यजीवों के उपमर्दन का अभाव होने से दोष नहीं है 'एवं-एवम्' इसी प्रकार विन्नविणिस्थीसु-विज्ञापनीस्त्रीषु' समागम की प्रार्थना करनेवाली स्त्रीके साथ समागम करने से 'तत्थ-तत्र' इसमें 'दोसो को सिया-दोषः कुतः स्यात्' दोष कैसे हो सकता है ? अर्थात् कोई दोष नहीं है ॥११॥ अन्वयार्थ-जैसे मेढा बिलोडे विना ही जल को पीता है, इसमें जीवों का उपमर्दन न होने से दोष नहीं है, उसी प्रकार संभोग की प्रार्थना. करनेवाली स्त्रीके साथ समागम करने से भी कैसे दोष हो सकता है ? अर्थात् कोई दोष नहीं है ॥११॥ टीकार्थ-यदि किसी जीव को पीडा उत्पन्न होती तो मैथुन सेवन में दोष माना जा सकता था। मगर किसी की पीडा तो होती नहीं हैं। यही बात दृष्टान्त के द्वारा प्रदर्शित करते हैं-जैसे मेष मेढा हिलाये तमा मन्य मोm ना ५मना ARIA पाथी दोष नथी. 'एवं-एवम्' ॥ ५४॥२ 'विन्नविणित्थीसु-विज्ञापनीस्त्रीपु' समागमनी प्रार्थना ४२वापानी श्रीना साथे सभागम ४२वाथी 'तत्थ-तत्र' मामा दोस्रो को सिया-दोषः कुतः ચાત્' દેષ કેવી રીતે થઈ શકે છે? અર્થાત્ કેઈપણ દોષ નથી. ૧૧ સૂત્રાર્થ–જેવી રીતે ઘેટું પાણીને ડન્યા વિના જ તેનું પાન કરે છે, અને તે પ્રકારે તેના દ્વારા જીવોનું” ઉપમર્દન ન થવાને કારણે તેને દેષ લાગતું નથી, એ જ પ્રમાણે સંગની પ્રાર્થના કરનારી સ્ત્રી સાથે સંભોગ કરવાથી કેવી રીતે દેષ લાગી શકે? એટલે કે એમાં કોઈ દેષ સંભવી शsator नथी! ॥१९॥ ટીકાર્ય–શુ સેવન કરવાથી જે કોઈ જીવને પીડા ઉત્પન્ન થતી હોય, તે તે તેને દેષ માની શકાય, પરંતુ તેના દ્વારા સ્ત્રી કે પુરુષને પીડા ઉત્પન્ન થતી નથી. ઊલટા સુખ પ્રાપ્ત થાય છે. તે મિથુન સેવનમાં શા માટે દોષ सू० २२ For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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