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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाबोधिनो टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ.४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः छाया--यथा गण्डं पिटकं वा परिपीडयेत मुहूर्त्तकम् । एवं विज्ञापनोस्त्रीषु दोषस्तत्रकृतो भवेत् ॥१०॥ अन्वयार्थः- (जहा) यथा (गंड) गण्डलघुविस्फोटकः (पिलागं वा) फ्टिकं वा=गुरुविस्फोटकः (मुहुनगं) मुहूर्तकं क्षणमात्रम् (परिपीछेज्ज) परिपीडघेत (एवं विनवणित्यीसु) एवं विज्ञापनीस्त्रीषु सकामप्रार्थितासु (तत्थ) तत्र-ली. संमोगे (दोसो) दोषः (को सिया) कुतः स्नान्नैव भवेत् यथा विस्फोटकजनितपीडा विस्फोटकमर्दनेनापयाति क्षणमात्रेण सुखी भवति न तत्र कोपि दोष स्तथैव खीसमागमेपि न दोष इति ॥१०॥ टीका-ते यत् प्रतिपादयन्ति तदेव सूत्रकारः प्रतिपादयति । 'जहा' यथा 'गंड' गण्डं अल्पं स्फोटकं 'पिलागं' पिटकं महास्फोटं वा 'मुहुत्तग' मुहूर्तकं शब्दार्थ-'जहा-यथा' जैसे 'गंडं-गण्ड' छोटे फुन्शी को अथवा 'पिलागं वा-पिटकं वा' बडे फोडेको 'मुहुत्तर्ग-मुहर्तकम्' क्षणमात्र 'परिपीछेज्जा-परिपीडयेत' दया देना चाहिये 'एवं विनवणिस्थीसु-एवं विज्ञापनी स्त्रीषु' इसी प्रकार समागमकी प्रार्थना करनेवाली स्त्रीसे समागम करना चाहिये 'तस्थ-तत्र' इस कार्य में 'दोसो-दोष' दोष 'कओसिया-कुतः स्यात्' कहां से हो सकता है ? अर्थात् नहीं होता है।१०॥ __अन्वयार्थ--घे कहते हैं-जैसे फुसिया-फोडे को थोडी देर दवाया जाता है तो (पीव निकल जाने से शान्ति हो जाती है ) इसी प्रकार कामभोग की प्रार्थना करनेवाली स्त्री के साथ संभोग करने से शान्ति हो जाती है। इसमें दोष कैसे हो सकता है ? ॥१०॥ टीकार्थ-वे अन्यदर्शनी जिस प्रकार प्रतिपादन करते हैं, वह सूत्रकार साथ-'जहा-यथा' २वी शत 'गंडं-हम्' नानी ने मया 'पिलागं वा-पिटकं वा' मारी ३॥ीन 'मुहुत्तगं-मुहुर्त्तकम्' क्षमात्रमा परि पिलेजा-परिपीहथेत' ४ावी हे न मे एवं बिन्नव णित्थीसु-एवं विज्ञापनीस्त्रीषु' मा २ सभामनी प्रार्थना ४२वावाणी स्त्री साथे समागम १२व। नय. 'तत्थ-तत्र' । यभा 'दासो-दोषः' होष 'कओ सिया-कुतः स्यात्' ક્યાંથી થઈ શકે છે? અર્થાત્ દેષ લાગતું નથી. ૧ળા સૂત્રાર્થ–તેઓ એવું પ્રતિપાદન કરે છે કે-જેમ ખીલ અથવા ગુમડાને ડીવાર દબાવવાથી તેમાંથી દાણે અને પરુ નીકળી જવાથી શાન્તિ થાય છે, એજ પ્રમાણે કામની પ્રાર્થના કરનારી કામિની સાથે સંગ કરવાથી શાન્તિ થઈ જાય છે. તેમાં દેષ જ કેવી રીતે સંભવી શકે છે૧૧ For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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