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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ परिषहोपसर्गसहनोपदेशः ५ अधुना सर्वजनप्रतीतं दृष्टान्तं प्रदर्शयति सूत्रकार:-'पयाता' इत्यादि । पयाता सूरा रणसीसे संगामम्मि उवट्टिए। माया पुत्तं न जाणाइ जेएण परिविच्छए ॥२॥ छाया-प्रयाताः शूरा रणशीर्षे संग्रामे उपस्थिते। माता पुत्रं न जानाति जेत्रा परिविक्षताः ॥२॥ अन्वयार्थ:-(संगामम्मि) संग्रामे (उबट्ठिए) उपस्थिते प्राप्ते (रणसीसे) रणशी=युद्धाप्रभागे (पयाता) प्रयाताः प्राप्ताः (सूरा) शूराः शूरं मन्यमानाः (माया) माता (पुत्तं न जाणाइ) पुत्रं न जानाति-कटिपदेशतो भ्रश्यन्तं स्तनंध अब सूत्रकार सर्वविदित दृष्टान्त को दिखलाते हैं-'पघाता' इत्यादि। शब्दार्थ-'संगामम्मि-संग्रामे ' युद्ध 'उवहिए'-उपस्थिते ' छिडने पर 'रणसीसे-रणशीर्षे युद्ध के अग्रभाग में 'पयाता-प्रयाताः' गया हुआ 'सूरा'-शूगः' वीराभिमानी पुरुष 'माया-माता' माता 'पुत्तं न जाण'-पुत्रं न जानाति' अपने पुत्र को गोदसे गिरता हुआ नहीं जानती है ऐसे व्यग्रता युक्त युद्र में 'जेएण-जेत्रा' विजेता पुरुष के द्वारा 'परिविच्छए-परिविक्षताः' छेदन भेदन किया हुआ दीन बन जाता है ॥२॥ अन्वयार्थ-संग्राम उपस्थित होने पर युद्ध के अग्रभाग में उपस्थित हुए शूर अर्थात् वीरत्व का अभिमान करने वाले किन्तु वास्तव में कायर पुरुष, जिस भयानक युद्ध में माता अपनी गोदी से गिरते हुये पुत्र को भी नहीं जानती, ऐसे युद्ध में विजेता के द्वारा पराजित कर दिए जाते हैं ॥२॥ वे सूत्र२ सहित दृष्टान्त ८ ४२ छ-'पयाता' त्याल. शहाथ-'संगामम्मि-संग्रामे' युद्ध 'उवदिए-उपस्थिते' या मागे त्यारे रणसिसे-रणशी' युद्धना भागना मामा 'पयाता-प्रयाताः' गये 'सूरा- शूगः' वीर मभिमानी ५३१ 'माया-माता' भाता 'पुत्तं न आणाइ'-पुत्रं न जानाति' પિતાના પુત્રને મેળામાંથી પડતાં જાણતી નથી, એવા વ્યગ્રત યુક્ત યુદ્ધમાં 'जेरण-जेत्रा' वित! ५३५ना द्वा२। 'परिविच्छए-परिविक्षताः न सहन २i દીનતાયુક્ત બની જાય છે. વારા સૂત્રાર્થ–જેવી રીતે યુદ્ધની ભીષણતાને કારણે ગભરાઈ ગયેલી માતાની ગોદમાંથી નીચે સરી પડતા બાળકનું ધ્યાન પણ માતાને રહેતું નથી, એજ પ્રમાણે પિત ના વીરત્વનું અભિમાન કરનાર-કાયર હોવા છતાં પણ પિતાને શૂરવીર માનનાર-પુરુષ સમરાંગણમાં જ્યારે દુશ્મનની સામે ઉપસ્થિત થાય છે ત્યારે જોત જોતામાં શૂરવીર વિજેતા દ્વારા પરાજિત કરાય છે. . For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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