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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२० सूत्रकृताङ्गसूत्रे नम् आधाकर्मिकोद्देशिकादिभोजनं तथा शुद्धसंग मिनामाक्षेपकरणम् एष तत्र मार्गः 'न जियए' न नियतः, न नियतो न युक्तिसंगतः । 'वह' वचनं तद् साधुमुद्दिश्य यदाक्षेपवचनं मत्रद्भिः प्रतिपादितम् । तदपि - 'असमिक्व' असमीक्ष्य, विचारमन्तरेणैव कथितम् । तथा 'क' कृतिः भवतामाचरणमपि न समीचीनमिति ॥ १४ ॥ मूलम् - एरिसी जो वंई एसी अग्गवेणुव्व करिसिता । ७ गिहिणो अभिह से भुजिउ ण उ भिक्खुणं ॥ १५ ॥ छाया - ईदृशी या वागेषा अग्रवेणुरिव कर्षिता । गृहिणोऽपहृतं श्रेयः भोक्तुं न तु मिक्षूण. म् | १५ || प्रकार कहे गृहस्थ के पात्र में भोजन करना और बिमार साधु के लिए गृहस्थ द्वारा भोजन मंगवाना, आधाकर्मी एवं औदेशिक आहार करना और शुद्ध संयम का पालन करने वालों पर आक्षेप करना, यह आप का मार्ग युक्तिसंगत नहीं है। साधु के विषय में आप ने जो आक्षेप वचन कहे हैं, वह आप के बचन विना विचारे ही कहे गए हैं। इसके अतिरक्त आप का आचार भी समीचीन नहीं है' ॥ १४॥ शब्दार्थ - 'एरिसा - ईदृशी' इस प्रकार की 'जा-या ' जो 'बई - वागू' कथन है कि 'गिहिणो अभिहडं-गृहिणोऽभ्याहृतम्' गृहस्थ के द्वारा लाया हुआ आहार 'भुंजिरं सेयं भोक्तुं श्रेयः' साधु को ग्रहण करना कल्याणकार क है 'ण उ भिक्खु न तु भिक्षूणाम्, परन्तु साधु के द्वारा लाया हुआ आहारादिक लेना ठीक नहीं है 'एसा - एषा' यह बात 'अग्गवेणुग्ध करिसिता अग्रवेणुरिव कर्षिताः' बांस के अग्रभाग के जैसा कृश दुर्बल है | १५|| અને ખિસાર સાધુને માટે ગૃહુસ્થ દ્વારા ભાજન મગાવવું-આધાકમ દોષ યુક્ત તથા ઔદ્દેશિક દેષયુક્ત આહાર કરવા, તથા શુદ્ધ સંયમનું પાલન કરનારા જૈન સાધુએ પર આક્ષેપ કરવેા. આ તમારી રીત યુક્તિસંગત નથી જૈન સાધુઓ સામે તમે જે આક્ષેપ વચને ઉચ્ચાર્યાં છે તે વગર વિચાર્ય જ ઉચ્ચાર્યાં છે. સાધુએ સામે આ પ્રકારના આક્ષેપ કરનારા આપ લેકાના आयार पशु ये.ज्य (शुद्ध-होषरहित) नथी. गाथा १४॥ शब्दार्थ - 'एरिमा - ईदृशी' मा प्रश्नी 'जा-या' ने 'बई व ग्' स्थन छे 'गिहिणो अभिड्ड- गृहिणोऽभ्याहृनम्' गृहस्थना द्वारा साववामां आवेल आहार वगेरे देवे। ही नथी 'एसा - एषा' मा वात 'अग्गवेणुव्वक रिसिता - अप्र बेणुरिव कर्षिताः' वांसना आगणना लगना प्रेम देश हु . १५ For Private And Personal Use Only
SR No.020779
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages729
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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