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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सुलसा० ॥ ८० ॥ 0000000 www.kobatirth.org अंतर हतुं वली जे समवसरणमां प्रत्येक गढने विषे " चारे । दशार्द्धं तरफ रत्नमय चार चार दरवाजा शोजता हता ॥ १० ॥ श्रने जे समवसरणने विषे जाणे श्री जिनेश्वर प्रजुना मुखथी निकलेला एवा सरस्वतीना कल्लोल " तरंगो ज" होय नहिं शुं ! सहस्रा विंशतिर्येत्र, सोपानानि स्म भांति च ॥ 'जिनेशस्य विनिर्यात्याः, सरस्वत्या श्वोर्मयः ॥ ११ ॥ त्रिसोपानं चतुरं, तदंतमैणिपीठिकम् ॥ चतुरस्त्रं 'जिनांगोचं, 'विकोदशतं कृतम् ॥ १२ ॥ त्रिंशदिष्वासाः, पृथुः साधिकयोजनम् ॥ शोकतरुः काममेराजक्तपल्लवैः ॥ १३ ॥ | एवां वीश हजार पगथियां शोजतां हतां ॥ ११ ॥ तेनी मध्यमां त्रण पगथियावालुं चार द्वारवालूं, चोखंकुं, जिनेश्वरना चंग प्रमाण उंचुं धने बसे धनुष्य विस्तारवालुं मणिपीठ कस्युं दतुं ॥ १२ ॥ जे मलिपीठ उपर बत्रीश धनुष्य उंचो ने एक योजनथी १ वाणी अथवा सरस्वती नदी. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " सर्ग६ हो. ॥ ८० ॥
SR No.020772
Book TitleSulsa Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Kalidas Shastri
PublisherJain Vidya Shala
Publication Year1899
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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