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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१०) मोक्षाभिलाषी जिनेश्वर पर प्रीति रखता है। देहे द्रव्ये कुटुम्बे च, सर्वसंसारिणां रतिः । जिने जिनमते संघ, पुनर्मोचाभिलाषिणाम् ॥ ४६ ।। पांच प्रमाद । मजं विसयकसाया निद्दा विगहा य पंचमी भणिया । एए पंचपमाया जीवं पाडंति संसारे ॥५०॥ वर्ष मेघ कुणालायां दिनानि दश पंच च । मुशलप्रमाण(लमान)धाराभिर्यथा रात्रौ तथा दिवा ॥५१॥ भाग्यहीन को पास में रही लक्ष्मी नहीं दीखती । पदे पदे निधानानि, योजने रसकूपिकाः । भाग्यहीना न पश्यन्ति, बहुरत्ना वसुंधरा ॥ ५२ ॥ तीर्थ में जानेवाला भवभ्रमण नहीं करता है । श्रीतीर्थपाथरजसा विरजीभवन्ति, तीर्थेषु बंभ्रमणतो न भवे भ्रमन्ति । द्रव्यव्ययादिह नराः स्थिरसंपदः स्युः, पूज्या भवंति जगदीशमथार्चयन्तः ॥ ५३ ॥ पुरुष पृथ्वी का आभूषण है। वसुधाभरणं पुरुषाः, पुरुषाभरणं प्रधानतरलक्ष्मीः । लक्ष्म्याभरणं दानं, दानाभरणं सुपात्रं च ॥ ५४॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020763
Book TitleSubhashit Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhsagar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1934
Total Pages228
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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