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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Xxxxx श्रीस्थानाङ्गसत्र सानुवाद XXXXXXXXXXXXXXX णिवत्तिते उवसंते अणुवसंते, एवंनेरइयाणंजाव वेमाणियाण२४, एवं जाव लोभे जाव वेमाणियाणं २४ । सू० २४९ __ मूलार्यः-चार प्रकारे देवोनी स्थिति-मर्यादा कईली छे, ते आ प्रमाणे-कोईएक सामान्य देव छ १, कोईएक स्नातक(प्रधान) देव छे २, कोईएक शांतिकर्म करनार पुरोहित देव छ ३ अने कोईएक प्रचलन देव एटले भाट चारणनी जेम अन्य देवोनी प्रशंसा करनार देव छ ४. चार प्रकारे संवास (मैथुन) अथै पुरुष अने स्त्रीन एकत्र वसवू कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईएक देव देवीनी साथे संवास करे ( भोग करे), २ कोईएक देव छवी-नारी अथवा तिचणीनी साथे संवास करे, ३ कोईएक छत्री-नर अथवा तियंच, देवीनी साथे संवास करे अने ४ कोईएक छवी-मनुष्य के तियंच, मनुष्यणी के तियंचणी साथे संवास करे. (सू०२४८) चार कषायो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-क्रोध कषाय, मान कषाय, माया कषाय अने लोभ कषाय. ए चार कषाय नैरपिकने होय यावत् वैमानिकने चार कायो होय. चार स्थानक( भाव )मा रहेनारो क्रोध कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ पोताना अपराधथी पोताने विषे थयेल क्रोध ते आत्मप्रतिष्ठित, २ बीजाना वचनथी थयेल क्रोध अथवा बीजा प्रत्ये थवेल क्रोध ते परप्रतिष्ठित, ३ बनेयी (कईक पोताथी अने कंईक परना निमितथी) थयेल क्रोध ते तदुभयप्रतिष्ठित अने ४ कई पण कारण सिवाय क्रोधना उदयथी ज थयेल ते अप्रतिष्ठित क्रोध. आ चार प्रकारनो क्रोध x नैरयिकथी मांडीने यावत् वैमानिकने होय छे. चार कारणोवडे क्रोध उत्पन्न थाय छे, ते आ प्रमाणे-१ पोतपोताना उत्पचिना ४ स्थान काध्ययने उद्देश: संवास: कषायाध सू०२४८ २४९ KXKAKKKKKK:XXXX ॥३५६ ।। For Private and Personal Use Only
SR No.020755
Book TitleSthanang Sutra Ppart 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevchandra Maharaj
PublisherMundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh
Publication Year1943
Total Pages450
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size20 MB
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