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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्थानागपत्र सानुवाद ॥ ५५३॥ अनंतर समुद्रो कद्या, तेओने विषे आवत्तों (वमळ) होय छे माटे दृष्टांतरूप आवोंने अने दार्टीतिकरूप कषायोने कहेवानी इच्छावाळा सूत्रकार चे सूत्रने कहे छे जे सुगम छे. विशेष ए के-खर-कठण अति वेगथी पाडनार अथवा छेदनार भ्रमण इच्छावाळा पत्रकार ते आवर्त्त, ते समुद्रादिनो अथवा चक्रविशेषोनो खरावर्त, उन्नत-ऊंचो तद्रूप आवर्त ते उन्नतावर्त, ते पर्वतना शिखर उपर चडवाना मार्गनो अथवा ऊंचे चडवारूप वायुनो छे, गूढ एवो आवर्त ते गूढावर्त, ते दडा संबंधी दोरानो अथवा लाकडानी गांठ प्रमुखनो होय छे, आमिष-मांसादि, तेने माटे शमळी विगेरेनो आवर्त ते आमिषावर्त. खरावर्त्तादिनी समानता क्रमशः क्रोधादिनी कहे छे. बीजाने अपकार करवामां कठोर होवाथी क्रोधने, पांदडां अने तृण विगेरे वस्तुनी जेम मनने उन्नत(मोटाई)पणाने विष आरोपण करवाथी मानने, अत्यंत दुर्लक्ष्य होवाथी मायाने अने सेंकडो अनर्थनी प्राप्तिबडे व्याप्तस्थानने विषे पण नीचे पडवार्नु कारण होवाथी लोभने उपमाओ घटे छे. आ उपमा क्रमशः अतिशय क्रोधादिने छे. हवे तेओर्नु फल कहे छे-'खरावत्ते' त्यादि० अशुभ परिणाम ने अशुभ कर्मबंधना निमित्तपणाए दुर्गतिना निमित्तपणाथी कहेवाय छे के 'णेरइएसु उववजह' त्ति० (सू० ३८५) अनंतर नारको कह्या ते वैक्रिय विगेरेथी समान धर्मवाळा देवो छ माटे तेओना विशेषभूत नक्षत्र देवो संबंधी चार स्थानक प्रत्ये कहेवानी इच्छावाळा सूत्रकार 'अणुराहे ' त्यादि० त्रण सूत्रने कहे छे अणुराहानक्खत्ते चउत्तारे पं०-पुव्वासाढे एवं चेव उत्तरासाढे एवं चेव । सू० ३८६, जीवाणं चउठाणनिव्वत्तिते पोग्गले पावकम्मत्ताते चिणिंसु वा चिणंति वा चिणिस्संति वा, नेरतियनिव्व ४ स्थानकाध्ययने उद्देश ४ नक्षत्रतारकार पुद्ग लनिर्वर्तन पुद्गल प्रदे४ शादि सू० *३८६-८८ KXxxxxxxxxxxxxxxxxxx EXXXX KXXXXX KXXXXXXXXXX ४॥५५३॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020755
Book TitleSthanang Sutra Ppart 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevchandra Maharaj
PublisherMundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh
Publication Year1943
Total Pages450
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size20 MB
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