SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 411
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyarmandie XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXMURARMAXXXXX कुंभ कहेला छे, ते आ प्रमाणे-कोईक मधनो कुंभ अने मधk ढांकणुं छे, २ कोईक मधनो कुंभ अने विपर्नु ढांक[ छ, ३ कोईक विषनो कुंभ अने मधनुं ढांकणु छे अने ४ कोईक विषनो कुंभ अने विषतुं ढांकणुं छे. (१३) आ दृष्टांत चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईक पुरुष निष्पाप हृदयवाळो छे अने मधुरभाषी छे, ए प्रमाणे चार भांगा जाणवा. (१४) अहीं मृळनी चार गाथानो अर्थ आ प्रमाणे विचारवो-जे पुरुषमां पापरहित, प्रीतिकर हृदय अने जीभ पण मधुर बोलनारी नित्य विद्यमान छ ते पुरुष मधुनो कुंभ अने मधुना ढांकणा जेवो छ।।२॥ जे पुरुषमा पापरहित, प्रीतिकर हृदय छे परंतु जीभ कटुक बोलनारी नित्य विद्यमान छ ते पुरुष मधुना कुंभ अने विषना ढांकणा जेवो छ ।॥ २॥ जे पुरुषमा पापमय, अग्रीतिकर हृदय छे पण जीभ मधुरभाषिणी नित्य विद्यमान छे ते पुरुष विषनो कुंभ अने मधुना ढांकणा जेबो छ । ३ ॥ जे पुरुषमा पापमय, अप्रीतिकर हृदय छे अने जीभ पण कटुकभाषिणी नित्य विद्यमान छे ते पुरुष विषनो कुंभ अने विषना ढांकणा जेवो छ । ४ ।। (सू० ३६०) टीकार्थः-'चत्तारि तरगे' त्यादि० स्पष्ट छे. विशेष ए के-तरे छे ते तरा, ते ज तरको-तरनाराओ छे. 'समुद्रनी माफक दुस्तर सर्वविरति विगरे कार्यने (९) तरामि-करूं छु' एवी रीते स्वीकारीने तेमां समर्थ कोईएक समुद्रने तरे छे अर्थात् ते ज समर्थन करे छ-आ एक, चीजो तो तेने ( सर्वविरत्यादिने ) स्वीकारीने असमर्थपणाथी गोष्पदसमान देशविरति विगेरे अल्पतमने तरे छे-पाळे छे, श्रीजो तो गोष्पदप्राय(देशविरति)ने स्वीकारीने वीर्यना अतिरेकथी समुद्रप्राय(सर्वविरति)ने पण साधे छे. चतुर्थ भंग सुगम छे. (१) समुद्रप्राय कार्यने निर्वाहीने समुद्रप्राय अन्य प्रयोजनमा खेद पामे छे पण तेनो निर्वाह करतो नथी, कारण के क्षयोपशमनी विचित्रता होय छे. एवी रीते शेष त्रण भांगा पण जाणवा. (२) कुंभना दृष्टांतवडे xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxXXXXXXXOXO For Private and Personal Use Only
SR No.020755
Book TitleSthanang Sutra Ppart 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevchandra Maharaj
PublisherMundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh
Publication Year1943
Total Pages450
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy