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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्थानाङ्गमत्र सानुवाद ॥४१३॥ ४ स्थानकाध्ययने उद्देशा २ केतनादि र० २९३ Koxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx कंईक वस्तुने नाखीने पट्ट (रेशमी) सूत्रने रंगे छे ते नहिं उतारेल रस कृमिराग कहेवाय छे. तेमां कृमिओनो राग-रंगनार रस ते कृमिराग अने तेनावडे रंगायेलुं ते कृमिरागरक्त. एवी रीते सर्वत्र जाणवू. विशेष ए के-कम एटले गायना रस्ता विगेरेनो कादव, खंजन-दीवा विगेरेनो मेल अने हलदर तो प्रसिद्ध छे. लोभनी कृमिराग विगेरेथी रंगायेल वस्त्रनी समानता छे केम के अनंतानुबंधी विगेरे लोभना भेदवाळा जीवोर्नु क्रमवडे दृढ, हीन, हीनतर अने हीनतम अनुबंधपणुं होय छे, ते आ प्रमाणे-कृमिरागवडे रंगायेल वस्त्र बाळवा छतां पण रंगना अनुबंधने छोडे नहिं केम के तेनी भस्म रक्त होय छे. एम जे मरवा छतां पण लोभना अनुबंधने मूकतो नथी तेनो लोभ कृमिरागवडे रंगायेल वस्त्र समान अनंतानुबंधी कहेवाय छे. एम सर्वत्र भावना करवी. फलमत्र स्पष्ट छ, अहिं कषायनी प्ररूपणानी गाथाओ दर्शावे छजलरेणुपुढविपवयराईसरिसो चउव्विहो कोहो । तिणिसलयाकट्टिय-सेलत्थंभोवमोमाणो ॥ ९३॥ जलनी रेखा समान, रेतीनी रेखा समान, पृथ्वीनी (फाट ) समान अने पर्वतनी फाट समान संज्वलन विगेरे चार प्रकारनो क्रोध छ नेतरनी लता (छडी) समान, काष्ठना स्तंभ समान, हाडकाना स्तंभ समान अने पत्थरना स्तंभ समान संज्वलन विगेरे चार प्रकारको मान छे. मायाऽवलेहिगोमुत्ति-मेंढसिंगघणवंसिमूलसमा।लोभो हलिदखंजण-कद्दमकिमिरागसारिच्छो॥९॥ चांसनी झीणी छाल समान, गायना मूत्र समान, मेंढाना शींगडा समान अने वांसना मूल समान क्रमशः संज्वलन ॥४१३ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020755
Book TitleSthanang Sutra Ppart 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevchandra Maharaj
PublisherMundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh
Publication Year1943
Total Pages450
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size20 MB
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