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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org वे घबरा उठे । उसी क्षण उन्होंने माणीभदजी के चरणों हे गिरकर शरणागति स्वीकार ली । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माजी ने आदेश दिया "आज के बाद तुम किसी भी साधु पुरुष को परेशान नहीं करोगें नहीं तो मैं तुम्हें सख्न शिक्षा करुगा । उसी दिन से उपद्रव शान्त हो गया । माणीभद्र देव ने आचार्य श्री हेमविमलसूरिजी से कहा "गुरुदेव ""। आज से आप अपने उपाश्रयों में द्वार पर ही मेरो स्थापना करके चौकी बैठा दीजिये अतः फिर कोई भी उपद्रव आपको नहीं होगा ' तथा मेरे तीन स्थान हैं । (१) उज्जयिनी में क्षिप्रा किनारे बड़ के पेड़ नीचे (२) आगलोट (३) मगरवाडा इन तीनों स्थानकों पर आकर जो भी सत्यनिष्ठा से मेरी पूजा करेगा में उसके दुःख दर्द दूर करूँगा तथा मनवांछित पूर्ण करुगा ।" आचार्य श्री ने माणीभद्रजी की बात स्वीकार को तथा तपागच्छ के जितने भी उपाश्रय थे उनमें माणोभद्रजी की स्थापना करवाई । आज भी जो प्राचीन उपाश्रय है उनमें द्वार के पास गोखले में माणीभद्रजी की प्रतिमाजी है । माणीभद्र देव तपागच्छ के अधिष्ठायक देव हैं । उपाश्रय में माणीभद्रजी की सम्भाल ठीक से नहीं होने पर अब माणीभद्रजी को उपाश्रय के बजाय जिनालय में ही गोखले या देहरी बना कर उनकी स्थापना की जानें लगी है । आज भी उज्जैन में क्षिप्रानदी के किनारे सिध्दवट नामक स्थान है जहां माणीभद्र का किन्तु वर्तमान में वह स्थान अजैनों के कब्जे में की ही पूजा होती है। भेरुगढ़ नामक इलाके में मस्तक पूजा रहा है। माणीभद्र जी के मस्तक आगलोट तथा मगरवाडा माणीभद्रजी के चमत्कारिक स्थान हैं । दोनों स्थान आज माणीभद्रजी के तीर्थ हो चुके हैं दोनों जगह विशाक जिनालय तथा माणीभद्रजी का मन्दिर है। तीर्थ का विकास खूब हो चुका है । आगलोट में उनके धड़ की पूजा होती है तथा मगरवाडा में उनके पैरों की पूजा होती है । किन्तु अफसोस है कि उज्जैन में ऐसा माणीभद्रजी का कोई स्थान नहीं जो कि उनके पूर्वजन्म का निवास स्थान था । [52] For Private and Personal Use Only
SR No.020739
Book TitleSiddhachakra Aradhan Keshariyaji Mahatirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitratnasagar, Chandraratnasagar
PublisherRatnasagar Prakashan Nidhi
Publication Year1989
Total Pages81
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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