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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ओर रवाना कर दिया । और खुद पैदल ही गिरिराज की यात्रार्थ निकल पड़े । सिद्धगिरिराज के ध्यान में ही सेठ आगे बढ़ने लगे थे । एक दिन एक घटना घट गई। जब वे डीसा के नजदीक घने जंगल से गुजर रहे थे। वहां उन्हें डाकुओं ने घेर लिया। "सेठ । जो हो हमें सौंप दो वरना।" डाकूओं के सरदार ने कहा "तुम्हें चाहिये तो माणकशा से भीख मांगो । माणकशा मुह मांग दान देता है किन्तु तुम मुझे लुटना चाहोगे तो मैं तुम्हें एक पैसा नहीं दूंगा।" माणकशा ने भी अपनी तीक्ष्ण तलवार खींच ली। . . माणकशा बनिया अवश्य ही था किन्तु कायर या डरपोक नहीं था। आत्मरक्षा तो वह कर हो लेता था। माणकशा के तमतमाते उत्तर से डाकू चिढ़ गये । उन्होंने सेठ पर धावा बोल दिया। संठ भी उन्हें अपने हाथ को प्रसादी चखाने लगे। माणकशा ने डाकुओं का सफाया चाल किया। माणकशा अकेले हो थे और डाक अनेक थे। फिर माणकशा को पिछले कितने ही दिनों से चउविहार उपवास थे । वैसे ही शरीर दुर्बल हो रहा था किन्तु फिर भी वे शूरवीर की तरह डाकुओं का सामना कर रहे थे। कितने ही डाकू उनकी तलवार का भोग बनकर यमसदन पहुंच गये थे। मृत्यु प्राप्त डाकू को ही तलवार लेकर अब दोनों हाथ से तलवार चला कर माणकशा ने अपनी शूरवीरता का परिचय दिया । किन्तु माणकशा ज्यादा देर युद्ध करने के लिये समर्थ नहीं थे। किसी डाकू ने उनका मस्तक उड़ा दिया । सिद्धाचल के ध्यान में ही माणकशा का मस्तक धड़ से अलग हुआ था अत: वे व्यन्तर निकाय में इन्द्रदेव के स्थान पर इंद्र देव बने । जैसे ही वे देव नने कि उनकाधड़ही दोनों हाथों में तलवार लेकर लड़ने लगा । डाकू घबरा गये। चारों दिशा में भागने लगे किन्तु माणकशा के घड़ ने उनका पीछा किया । सभी डाकू उनके प्रकोप के भोग बन गये। माणकशा सेठ का काट हुआ मस्तक अपने आप ही स्वतः अवन्तिका नगर की मोर चला दिया। उनका धड़ भी जर्जरित हो गया था। उनके पैर मगरवाडा की ओर गये एवं धड़ आगलोट की ओर [49] For Private and Personal Use Only
SR No.020739
Book TitleSiddhachakra Aradhan Keshariyaji Mahatirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitratnasagar, Chandraratnasagar
PublisherRatnasagar Prakashan Nidhi
Publication Year1989
Total Pages81
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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