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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पति का आदेश सुनकर सभा में नित्कारें छूट गई। सन्नाटा छा गया दरबार में । किन्तु क्षण भर का विलम्ब किये बिना भगवान जिनेश्वरों के वचन पर श्रद्धा रखनेवाली मयणासुन्दरी ने वरमाला उठाकर राणा के गले मे पहना दी। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजसभा मे शोर शराबा और कोलाहल मच गया। सर्वत्र हाहा कार सा होने लगा । राणा ने अचानक चौंककर कहा " राजकन्या । यह तुमने क्या किया। कैसी जिद है तुम्हारी, क्यों अपना जीवन बर्बाद कर रही हो मुझ कोढ़ी के संग तो तुम्हारा जीवन ही भ्यर्थ हो जावेगा तुम फूल-सी नवयौवना हो फूलों की तरह तुमने परवरिश पाई है तुममे यह बात कहां से घर गयो अभी भी समय हैतुम अपनी भूल सुधार लो और अपने समान सुन्दर सुकोमल राजकुमार का वरण कर को क्यों इस दुर्लभ जीवन को दूभर करने को और कदम बढ़ा रही हो किन्तु कर्मो के सिध्दान्त पर अटूट श्रध्दा रखने वाली ममगा ने राणा का हाथ पकड़ लिया व राजदरबार की सीढीया उतर गई महाराजा प्रजापाल सिंहासन पर ही होश गवा बैठे । कोढ़ियों के हर्ष का पार नहीं था । उन्हें मानवपति की पुत्री अपनी रामी के रूप में मिल चुकी थी। वे मालवपति की जय जयकार करते हुवे अपने स्थान पर नगरी के बाहर तम्बू में आ गये। वहां उन्होंने विवाह का महोत्सव मनाया। सन्ध्या तक चुकी थी । पृथ्वी पर अन्धकार छा रहा था । तम्बू में उम्बर राणा और मयणा सुन्दरी बैठे थे। राणा ने कही "राजसुता । अभी भो तुम विचार करलो और पिता की बात स्वीकार लो अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। किसी अन्य राजकुमार से वे तुम्हारी शादी "" "बस करो नाथ....। आपके द्वारा बोले जारहे प्रत्येक वाक्य मेरे कोमल हृदय में तीक्ष्ण बाण की तरह चुभ रहे हैं। मैं आपकी राजकुमारी हु नाथ .. [12] For Private and Personal Use Only
SR No.020739
Book TitleSiddhachakra Aradhan Keshariyaji Mahatirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitratnasagar, Chandraratnasagar
PublisherRatnasagar Prakashan Nidhi
Publication Year1989
Total Pages81
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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