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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar [४] अयसाण भायणण य, कि त णग्गेण पावमालणेण । पेसुरण हास मच्छर-माया बहुलेण सवणण ॥ ६६ ॥ वने ऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणां, गृहेपि पंचेन्द्रिय निग्रह स्तपः । अकुत्सिते वर्त्मनि यः प्रवर्तते, विमुक्तरागस्य गृहं तपावनं ॥ १ ॥ मा०कुदकुदकृतभावप्राभृत गा० ६६ श्रुतसागरीटीका (१० २१३ ) जह सलिलण ण लिप्पा, कमलिणिपत्तं सहावपयडीए । नह भावेण ण लिप्पइ, कसाय विसरहिं सप्पुरिसो ॥ ५२ ॥ धात्रीबाला ऽसतीनाथ-पद्मिनीदल वारिवत् । दग्धरज्ज वदाभासं, भुञ्जन् राज्यं न पापभाक् ॥ अजनपि भवत् पापी; विघ्नन्नपि न पापभाक् । परिणाम विशषेण, यथा धीवर कर्षकौ ॥ ४॥ (आ० कुंद कुंद कृत भाव प्रामृत गा० १५२ और १६२ की श्रुत सागरी रीका पृ० २५६, ३०२, ) भावो हि पढमलिंग, ण दव्वलिंगं च जाण परमत्थं ॥२॥ भावेण होई लींगी ॥ ४८ ॥ भावो कारण मृदो ॥६६॥ जाणेहिं भावधम्म ॥२॥ नयत्यात्मानमात्मेव, जन्म निर्वाण मेव च ।। ७५ ।। अप्पा तारइ तम्हा अप्पासो झायव्यो । समभावे जिण दिद्वं ॥ वगैरह २। पं० बनारसी दास जी बताते हैं किजो घर त्यागे कहावे जोगी, घर वासी कह कहें जूं भोगी। अन्तर भाव न परखे जोई, गोरख बोले मूरख सोई॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020729
Book TitleShvetambar Digamber Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand Shah
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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