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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ७२ ] यह हिंसा हिंसा नहीं मानी जाती । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यदि जिनसूत्र मुलं तदाऽऽस्तिकै युक्तिवचनेन निषेधनीयाः तथापि यदि कद्राग्रहं न मुञ्चन्ति तदा समर्थ रास्तिकैः उपानद्भि ग्रंथ लिप्तामिः मुखे ताड़नियाः, तत्र पापं नास्ति । उक्तं चोत्तर पुराणस्य वर्द्धमान पुराणेसोपि पापः स्वयं क्रोधा दरुणी भूत वीक्षणः । उद्यमी पिंड माह, प्रस्फुरद्दशनच्छदः ॥ १ ॥ सोढुं तदक्षमः कश्चिद्, असुरः शुद्धद्दक् तथा । हनिष्यति तमन्यायं शक्तः सन् सहते नहि ॥ २॥ सोपि रत्नप्रभां गत्वा, सागरोपम जीवितः । चिरं चतुर्मुखो दुःखं, लोभादनु भविष्यति ॥ ३ ॥ धर्मनिर्मूल विध्वंसं, सहन्ते न प्रभावकाः । "नास्ति सावद्यलेशन, विना धर्म प्रभावना" ॥ ४ ॥ धर्मध्वंसे सतां ध्वंसः, तस्माद् धर्मद्रुहो ऽधमान् ॥ निवारयन्ति ये सन्तो, रक्षितं तैः सतां जगत् ॥ ५ ॥ ( दर्शन प्राभृत गा० २ की श्रुत सागरी टीका पृ० ४ ) जैन "तय तो आप अपवाद को धर्म मानने के पक्ष में हैं। दिगम्बर - - उपसर्ग और अपवाद को इन्साफ न देने से हमारे दिगम्बर समाज की कैसी दुर्दशा हुई है । उसका यथार्थ स्वरूप दिगम्बर विद्वान् प्रो० प्रा० ने० उपाध्ये M. A. फाइनल इस प्रकार बताते हैं । "आचार शास्त्र में बार्णत उत्सर्ग और और अपवाद मांगों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि साधु समुदाय में इस श्रम साध्य प्रबन्ध ने मतभेद के लिये बड़ा अवसर दिया. जब किसी प्रधान आचार्य का स्वर्गवास हो जाता था तब सर्वदा For Private And Personal Use Only
SR No.020729
Book TitleShvetambar Digamber Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand Shah
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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