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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ५२ ] भावेण होइ लिंगी, णहु लिंगी होइ दव्वमित्तण । तम्हा कुणिज्ज भावं, किं किरइ दव्वलिंगेण ॥४८॥ माने द्रव्यलिंग, नग्नता से कुछ नहीं होता है। भावेण होइ णग्गा, बाहिर लिङ्गेण किं च णग्गण । कम्म पयडीय नियरं, णासेइ भावेण ण दव्वेण ।। ५४ ।। निर्मम बनो १ नंगा होने से क्या ? नंगा हो जाने से कर्म का विनाश नहीं होता है। णग्गत्तणं अकज्ज, भावेण रहियं जिणेहिं पन्नत्तं । इय नाऊणय णिचं, भाविज्जहि अप्पयं धीर ॥ ५५ ॥ देहादिसंग रहिओ, माण कसाएहिं सयल परिचित्तो । अप्पा अप्पम्मि रो, स भावलिंगी हवे साहू ॥ ५६ ॥ देह वस्त्रादि में निर्मम और निष्कषाय मुनि भाव लिंगी है। ममत्तिं परिवज्जामि, णिम्ममत्ति मुवदिह्रो ॥ ५७ ॥ भावो कारणभूदो, सायाराऽणयार भूदाणं ।। ६६ ॥ णग्गो पावई दुक्खं, णग्गो संसार सायरे भमई । णग्गो ण लहइ बोही. जिण भावेण वजिलो सुइरं ॥६॥ नग्नता मोक्ष का कारण नहीं है । भाव सहिदो मुणिणो, पावइ आराहणा चउक्कं च । भाव रहिदो य मुनिवर, भमइ चीरं दीह संसारे ॥१६॥ नंगा संसार में भटता है। सेवहि चउविहलिंग, अभितरलिंग सुद्धिमावण्णो। बाहिरलिंगमकज्ज होई फुडं भावरहियाणं ॥ १०६॥ भाव समणो वि पावइ, सुक्खाई दुहाई दव्व समणो य । इइ गाउं गुण दोसे, भावेण संजुदो होइ ॥ १२७॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020729
Book TitleShvetambar Digamber Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand Shah
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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