SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आहारोय......हवई अरुहो ॥३४॥ (आ० कुन्दकुन्दकृत बोधप्राभृत) (३) बाह्य तपः परमदुश्चरमाचरस्त्वं ॥८३॥ (आ० समन्तभद्रकृत स्वयंभू स्तोत्र) (४) तैजस समूह कृतस्य, द्रव्यस्याभ्यवहतस्य पर्याप्त्या अनुत्तरपरिणामे शुत् क्रमेण भगवति च तत्सर्वम् ॥९॥ (५) आद्यश्चतुर्दशदिनै विनिवृत्त योगः । षष्ठेन निष्ठितकृति जिन वर्धमानः ।। शेषा विधूत घनकर्म निबद्धपाशाः । मासेन ते यतिवरास्त्वभवन् वियोगाः ॥२६॥ मोक्ष पाते समय के० भ० आदिनाथ जीने चौदह दिन का के० भ० वर्धमानस्वामीने छट्ट का और शेष २२ के तीर्थकरों ने महीना का तप किया। माने वे कवलाहार लेते है उनका त्याग किया। (आc पूज्यपादकृत-निर्वाण भक्ति) ___ सारांश --तीर्थकर भगवान् आहार लेते हैं, तप भा करते हैं, उनको आहार का अभाव मानना यह कल्पना ही है, इस तरह ओर २ अतिशयों में भी कुछ २ कम वेशी होगी । दिगम्बर-~-तीर्थकर भगवान को केवलज्ञान होने से १४ अतिशय देवकृत होते हैं । वे ये हैं २१ भाषा सार्यामागधी होवे २२ सब जीवों से मैत्री रहे, २३ छैऋतुओं के वृक्ष एक साथ पत्ते, फूल, गुच्छे और फलों से सुशोभित रह २४ भूमि रत्नमयी और शीशा के समान निर्मल बनी रहे २९ अनुकूल हवा चले २६ जनता में आनन्द बढ़े २७ वायु विहारभूमि से एकेक योजन तक 'कुडा कर्कट काँटे और कँकरी को हटा देवे और भूमि में खुशबू फैली रक्खे, २८ स्तनितकुमार खुशबू पानी की वर्षा करे २९ विहार में तीर्थकर के पैर के नीचे एकेक योजन प्रमाण १५ (२२५) कमल रहे । ३० भूमि में सब अनाज होवे। ३१ आठों दिशाएं और आकाश स्वच्छ निर्मल रहे ३२ देवों को महापूजा के निमित्त आह्वान होता रहे । ३३ आकाश में निराधार धर्मचक्र चले ३४ अष्ट मांगलीक चले। For Private And Personal Use Only
SR No.020729
Book TitleShvetambar Digamber Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand Shah
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy