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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४) "जैन गजट'-सोलापुरके तंत्री पंवंशीधरजी लिखते हैं"किंचिदूनका मतलब २/३ क्यों न समझा जाय ?" + + "उपांगादि ३० प्रकृतियों का सयोग केवलीके अन्त्य समय में नाश हो जाता है। तब अन्त में नासिका आदि अनेक उपांगों के छिद्र थे नहीं रह सकते" (जैन गजट व० ३७ अं० २ और च० पृ० ७९) इनं प्रमाणों से निर्विवाद स्पष्ट है कि-सिद्ध भगवान् की अवगाहना त्यक्त अंतिम शरीर के २/३ हिस्से में रह जाती है। दिगम्बर-केवली भगवान ४ कर्मयुक्त हैं औदारिक शरीरवाले ह ११ परिषद उपसर्ग सहते हैं आहार लेते हैं पानी पीते है रोगी होते हैं निहार करते हैं सातों धातु युक्त हैं देहप्रवृत्ति करते है साक्षरी भाषा बोलते हैं इत्यादि २।। यदि यह बाते दिगम्बर शास्त्रों से सिद्ध हैं तो फिर दिगम्बर विद्वान् इनकी मना क्यों करते हैं ? जैन-दिगम्बर विद्वान् दिगम्बरत्व की रक्षाके लिये इन बातों की मना करते हैं। वे एकान्त नग्नत्व में जोर देते हैं और उसी के कारण वस्त्र, पात्र, गोचरी विधि, आहार लाना इत्यादि की मना करते हैं। ठीक उसी सिलसिले में क्रमशः केवली के लिये आहार लाना आहार करना औदारिक शरीर सातधातु रोग परिषह उपसर्ग निहार अग्निसंस्कार देहप्रवृत्ति १८ दृषण वाक प्रवृत्ति साक्षरी भाषा और द्रव्यमन वगैरह की मना करते हैं। माने-यह सारी बात दिगम्बरत्व के कारण खड़ी की गई है दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि दिगम्बर विद्वानों ने जगकर्ता ईश्वर अपेक्षा तीर्थकर का जीवन कुछ विशेषता युक्त है ऐसा बतलाने के लिये आहार, रोग, निहार, अग्निसंस्कार, साक्षरी पाणी इत्यादि का निषेध करदिया होगा। और उस अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन को ही वास्तविक रूप स शास्त्रों में दाखिल करदिया होगा। कुछ भी हो, उन कल्पनाओं को दिगम्बर शास्त्रों का आधार नहीं हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.020729
Book TitleShvetambar Digamber Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand Shah
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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