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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४३ यस्य च मूर्तिः कनकमयीव, स्वस्फुरदाभा कृतपरिवेपा || वागपि तवं कथयितुकामा, स्यादुपदपूर्वा रमयति साधून् ॥ १०७॥ विधेयं वार्य चानुभयमुभयं मिश्रमपि तत् । विशेषैः प्रत्येक नियम विषयैश्चापरिमितैः || सदान्योन्यापेक्षैः सकलभुवन ज्येष्ठ गुरुणा । त्वया गीतं तत्वं बहुनय विवक्षेतरवशात् ॥ ११८ ॥ ( स्वामी समन्तभद्रकृत वृहत् स्वयंभू स्तोत्र ) (१७) तस्याग्रशिष्यो वरदत्त नामा, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सद्दृष्टि - विज्ञान - तपःप्रभावात् । कर्माणि चत्वारि पुरातनानि, विभिद्य कैवल्यमतुल्य मापत् ॥२॥ एवं स पृष्टो भगवान् यतीन्द्रः, श्रीधर्मसेनेन नराधिपेन । हितोपदेशं व्यपदेष्टुकामः, प्रारब्धवान् वक्तुमनुग्रहाय ॥ ४२ ॥ येsस्त्वया प्रश्नविदा नरेन्द्र ! चतुर्गतीनां सुखदुःखमूलाः । पृष्टा यथावद्विनयोपचारै रेका बुद्ध्या शृणु ते ब्रवीमि ॥ ४३ ॥ ( आ० जटासिंहनन्दिविरचित, वरांगचरित सगँ ३ पृ० २६-३०) इन दिगम्बर प्रमाणों से निर्विवाद है कि- तीर्थकर व केवलीओ की वाणी मुखसे निकली है, साक्षरी है, मनोहर है, गम्भीर है, स्याद्वादवाली है, नयनिक्षेपादियुक्त है और गेयपद्धतिबाली है । दिगम्बर- केवलीओ को मन होता है या नहीं इसके लिये भी कुछ मतभेद है । For Private And Personal Use Only
SR No.020729
Book TitleShvetambar Digamber Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand Shah
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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