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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अणाहार मार्गणा में १, २, ४, १३, १४, गुणस्थान हैं (कर्मग्रन्थ, ४-३३) (मूलाचार परि० ५ गा० १५९ टीका) अब इनका समन्वय किया जाय तो विग्रह गतिवाले, केवली समुद्धाती, अजोगी केवली और सिद्ध ही अणाहारी हैं । वास्तव में संसार में कार्मण काययोगी ही अणाहारी होते हैं। (कर्मग्रन्थ ३-२४,४-२४) जब यहाँ तेरहवें गुणस्थानवाले सयोगी केवलीओं को तो सिर्फ कार्मणकाययोग नहीं किन्तु १५ में से ७ काययोग होते हैं (कर्मग्रन्थ ४।२८) फिर ये अणाहारी कैसे माने जाय ? दिगम्बरागर्य नेमिचन्द्रसरि भी दिगम्बर विद्वान् उक्त गलती न करें, इस लिये साफ २ कार्मणकाययोगीको ही अणाहारी बता कर सिवाय के सब संसारियों को आहारवाले बताते हैं। कम्मइयकायजोगी, होदि अणाहारयाण परिमाणं । तविरहिद संसारो, सव्वो आहार परिमाणं ॥ (गोम्मटसार जीवकांड गा० ६७०) जो २ कार्मण कायजोगी हैं वे सब अणाहारी हैं । इसके सिवाय सब संसारी जीव आहारवाले हैं। अर्थात्-विग्रह गतिवाले, समुद्धाती केवली और अजोगी केवली ये ही अणाहारी हैं, सजोगी केवली आहारवाले हैं। इस कथन से स्पष्ट है कि दिगम्बराचार्य नेमिचन्द्रजी केवली भगवानको अणाहारी नहीं मानते हैं ! माने-केवली भगवान आहारी हैं-आहार लेते हैं। (८) रेवतीश्राविकया श्रीवीरस्य औषधं दत्तं । तेनौषधदानफलेन तीर्थकरनामकर्मोपार्जितमत एव औषधिदानमपि दातव्यम् । (दि० सम्य पत्वकौमुदी पृष्ठ ६५) अर्थ-भगवान् महावीर स्वामी को गोशाले की तेजोलेश्या के कारण रोग हुआ था उस समय रेवती श्राविकाने कोलापाक (पठा) बहराया था, उससे भगवानको रोगशमन हुआ और रेवती को तीर्थकर नामकर्मका बंध हुआ । याने तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी माहार लेते थे, औषधि भी लेते थे। For Private And Personal Use Only
SR No.020729
Book TitleShvetambar Digamber Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshanvijay
PublisherMafatlal Manekchand Shah
Publication Year1943
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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